Friday 7 March 2014

खून के आंसू रोता अन्नदाता

भारतीय अर्थव्यवस्था दिनोंदिन कमजोर होती जा रही है। हमारी सरकारें खस्ताहाल स्थिति के कारण तो अनगिनत बताती हैं लेकिन इनके निवारण की दिशा में ठोस प्रयास होते कभी नहीं दिखते। हमारी अर्थव्यवस्था का मुख्य घटक कृषि, दैवीय आपदा और कुप्रबंधन का शिकार है। मुल्क की 62 फीसदी जनसंख्या की उदरपूर्ति और 56 फीसदी लोगों को रोजगार देने वाला अन्नदाता गुरबत में जी रहा है। चुनावी वैतरणी पार करने की खातिर राजनीतिक दल सरकारी मातहतों को तो बिन मांगे खैरात बांटते हैं लेकिन किसानों की माली हालत कैसे सुधरे इस पर हर दल गूंगा-बहरा हो जाता है। आजादी के 67 साल बाद भी सरकार की कोई ऐसी मुकम्मल व्यवस्था परवान नहीं चढ़ी जो धरती पुत्रों के मायूस चेहरे पर मुस्कान ला सके। कहने को 1980 के प्रारम्भिक वर्षों में किसानों की माली हालत सुधारने की दिशा में कृषि बीमा योजना को व्यापक स्तर पर लागू किये जाने को खूब हाथ-पैर चलाए गये थे लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति में खोट के चलते तीन दशक बाद भी अन्नदाता वहीं खड़ा है, जहां वह पहले था।
एक बार फिर बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि ने धरती पुत्रों पर तबाही मचा दी है। इस प्राकृतिक आपदा ने किसान के मुंह का निवाला छीन लिया है। खेतों में खड़ी फसलें तबाह हो गई हैं। गेहूं के फूल नष्ट हो गये तो बालियां टूटकर बिखर गई हैं।  किसान खून के आंसू रो रहा है लेकिन सरकारी अमला उससे बेखबर है। अन्नदाता की उम्मीदों पर वज्राघात कोई नई बात नहीं है। पिछले तीन साल से किसानों पर कुदरत ऐसा ही कहर बरपा रही है। वर्ष 2012 में पाला-तुषार और अतिवृष्टि तो 2013 में पहले पाला और अब ओलावृष्टि की मार से किसानों का सब कुछ जमींदोज हो गया है। धरती पुत्रों पर आई इस विपदा का त्वरित आकलन कर उसे मदद देने की बजाय सरकारी अमला कागजी घोड़े दौड़ाने में मस्त है। किसानों से कोरे कागजों पर दस्तखत कराकर तहसीलों में मनगढ़ंत कहानियां दर्ज की जा रही हैं। यह जो हो रहा है वह अन्नदाता के साथ सरासर धोखा और छल है। जिनके पास खेती-किसानी ही दो वक्त की उदरपूर्ति का सहारा है, वे गरीब होकर न मुफ्त का सरकारी अनाज खाने के हकदार हैं और न ही सरकारी इमदाद के। विरासत में मिली सामाजिक तंगहाली और मध्यमवर्गीय होने का दर्द ओढ़कर खून के आंसू रोने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है।
भारत का किसान सिर्फ दैवीय आपदा से ही आजिज नहीं है बल्कि नौकरशाह उसकी सबसे बड़ी समस्या है। निकम्मा सरकारी अमला कृषि योजनाओं का स्वरूप इतना जटिल बना देता है कि आम किसान उसे समझ ही नहीं पाता और उसे मजबूरन नौकरशाही के चंगुल में फंसकर भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ता है। एक ओर भारत सरकार अपने कृषि निर्यात को बढ़ाने को फिक्रमंद है तो दूसरी तरफ लगभग 32 करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी भी मयस्सर नहीं है। देश में भूखे और कुपोषित लोगों की संख्या पर नजर डालें तो यह अमेरिका की कुल आबादी के बराबर है। अंतरराष्ट्रीय फूड पॉलिसी पर गौर करें तो भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता दिनोंदिन घट रही है। 1992 में आर्थिक सुधार के बाद प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता जहां 480 ग्राम थी वहीं 2010 में घटकर 441 ग्राम ही रह गई है।
देश में धरती पुत्रों की हालत में सुधार के लिए समय-समय पर फसल बीमा योजनाएं अमल में तो आर्इं लेकिन जमीनी रूप में वे कभी फलीभूत नहीं हो सकीं। 1985-86 में समग्र फसल बीमा योजना लागू हुई लेकिन यह योजना 1999 में बंद हो गई। यही हाल प्रायोगिक फसल बीमा योजना का रहा। 1997-98 में यह योजना अस्तित्व में आने से पहले ही उसी साल बंद कर दी गई। वर्ष 1999-2000 में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना का शिगूफा भी खास प्रभावी नहीं रहा। हालांकि इसमें 2010 में कुछ संशोधन हुए लेकिन यह योजना भी किसानों की पीड़ा दूर नहीं कर सकी। 2003-04 में सरकार ने धरती पुत्रों को कृषि आमदनी बीमा योजना का सब्जबाग भी दिखाया लेकिन यह योजना भी उसी साल बंद कर दी गई। 2010-11 में संशोधित कृषि बीमा योजना में निजी कम्पनियों को भी शामिल किया गया लेकिन इन बीमा कम्पनियों ने ऐसी शर्तें तय कर दीं कि किसानों का हर्जाना दावा मान्य होने पर इन्हें मामूली भुगतान करना पड़े। निजी क्षेत्र की कृषि बीमा कम्पनियां व्यक्तिगत बीमा करने से कतराती हैं। किसानों की कृषि बीमा किस्त देने में भी हमारी सरकारें कभी उदार नहीं रहीं। अभी देश के किसानों की 10 फीसदी किस्त सरकार देती है जबकि अमेरिका में किसानों की किस्त का दो तिहाई हिस्सा सरकार वहन करती है।
देश में किसानों की माली हालत में सुधार के लिए सरकार को आर्थिक मदद के द्वार खोलने के साथ ही बड़े पैमाने पर मौसम केन्द्र खोले जाने की भी दरकार है ताकि किसानों को मौसम का पूर्वानुमान हो सके। अभी देश में लगभग दो सैकड़ा मौसम केन्द्र हैं जबकि खेती का कुल रकबा 14.1 करोड़ हेक्टेयर के आसपास है। देश में खेती के कुल रकबे को देखते हुए कम से कम छह हजार मौसम केन्द्र होने चाहिए। आदर्श तौर पर हर 15 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में एक मौसम केन्द्र होना समयानुकूल होगा। आजादी के बाद से अब तक बेशक बागड़ खेत चरते रहे हों पर सोलहवीं लोकसभा चुनावों की पूर्णाहुति के बाद बनने वाली नई सरकार से अपेक्षा है कि वह कृषि आबादी के लगातार बढ़ रहे चिन्ताजनक यक्ष प्रश्नों की सच्चाई को न केवल समझेगी वरन निराकरण के प्रयास भी सुनिश्चित करेगी। सच कहें जब तक मुल्क का धरती पुत्र खुश नहीं होगा, हमारी पवित्र धरा कभी नहीं खिलखिलाएगी।  किसी भी देश का विकास रथ किसानों की उपेक्षा से कभी आगे नहीं बढ़ सकता।


1 comment:

  1. SEEKING TRUTH

    If seeking God's truth is your goal, what avenue would you take. What would be your source for the truth?

    WOULD IT BE?

    A. Prayer and studying the Scriptures?

    B. Reading the books written by these men Bishop Sheen, Billy Graham, C.S. Lewis, Jimmy Swaggart, John Calvin, Martin Luther, Alexander Campbell, John Wesley, Robert Schuller, Oral Roberts, Rich Warren, Benny Hinn, Max Lucado, Charles H. Spurgen, Paul Washer, John McAthur, Joel Osteen, T. D. Jakes, Joesph Smith Jr., Chuck Swindoll etc.


    C. Read creed books, the Book of Mormon, catechism, statements of faith etc.


    B. and C. Does not contain the infallible word of God. Why would you search for truth there?


    GOD'S WORD IS TRUTH!


    2 Timothy 2:15 Be diligent to present yourself approved to God as a workman who does not need to be ashamed,accurately handling the word of truth.


    In order to accurately handle the truth you need to study the source for the truth. THE BIBLE AND THE BIBLE ALONE IS THE ONLY TRUSTWORTHY SOURCE FOR THE TRUTH.


    THE APOSTLES WORDS WERE TRUTH!


    1 Thessalonians 2:13 For this reason we also constantly thank God that when you received the word of God which you heard from us, you accepted it not as the word of men, but for what it really is, the word of God, which also performs its work in you who believe.


    Paul said their word was God's word. Paul the and the rest of the apostles received their words directly from Jesus and the Holy Spirit.


    Is the source of truth for group B. and C. direct revelation from Jesus or the Holy Spirit? Are their words the absolute truth and nothing but the truth? Are their writings equal to Scripture? The answer is NO.


    Why would believers in Christ be willing to put their trust in mere men? That is puzzling at best.


    ALL SCRIPTURE IS INSPIRED BY GOD.(2 Timothy 3:16)


    THE LISTS B. AND C. ARE NOT PRODUCING SCRIPTURE!


    SEEKING TRUTH?----BE CAREFUL WHERE YOU SEEK!

    YOU ARE INVITED TO FOLLOW MY BLOG. http://steve-finnell.blogspot.com

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