Friday 21 March 2014

मैदान में मुजरिम

भारतीय लोकतंत्र के सोलहवें महाकुम्भ का आगाज हो चुका है। हमेशा की तरह इस बार भी राजनीतिक दलों ने आपराधिक लोगों और बाहुबलियों पर निष्ठा जताकर अपने अंतस के राक्षस को जिन्दा रखा है। पिछले साल संसद से सड़कों तक चले राजनीतिक शुद्धिकरण के सारे दावे-प्रतिदावे सत्ता के लालच के सामने हवा-हवाई साबित हो रहे हैं। हमारी पवित्र संसद उन राजनीतिक पुजारियों की बाट जोह रही है जिनमें मुल्क की आवाम को खुशियों की सौगात देने का जज्बा हो। लोकतंत्र में मतदाता ही भगवान होता है। उसके हाथ असीमित अधिकार होते हैं, जिनका इस्तेमाल उसे पांच साल में एक बार ही करना होता है। वह पल आ चुका है। मतदाता अपने मत रूपी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर लोकतंत्र की गंगोत्री को शुद्ध कर सकता है बशर्ते उसे अपने मन से लोभ-लालच को दूर भगाना होगा।
इस बार के चुनाव यूं तो कई मायनों में खास होने जा रहे हैं मसलन सबसे लम्बी अवधि में होने वाले चुनाव, मतदाताओं की अधिक संख्या, पहले से प्रधानमंत्री प्रत्याशी घोषित कर व्यक्ति आधारित चुनाव लड़ने की नई परम्परा, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ सोशल मीडिया का बोलबाला, कांग्रेस, भाजपा के अलावा आम आदमी पार्टी की मजबूत दखल, तीसरे मोर्चे के साथ-साथ चौथे मोर्चे के लिए जमीन तलाशना यह सब पहली बार महसूस किया जा रहा है। सोलहवीं लोकसभा के गठन से पूर्व अपनी पार्टियों से जिस तरह राजनीतिज्ञों का मोहभंग हो रहा है वह भी राजनीतिक शुचिता का सूचक नहीं है। आज धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिकता, समाजवाद, पूंजीवाद, क्षेत्रीयता का एक-दूसरे में इस कदर घालमेल हो गया है कि किसी का असली चेहरा पहचानना भी कठिन है, विचारधारा तो दूर की बात है। कल तक एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोसने वाले राजनीतिज्ञ आज उनसे गलबहियां कर रहे हैं।
भारत का संविधान दो वर्ष 11 माह और 18 दिनों की सघन चर्चाओं, विचार-विमर्श व अनथक मेहनत के बाद तैयार हुआ। यह सर्वोच्च नागरिक धर्म ग्रंथ सत्ता के चाकरों की नजर में बेफजूल की किताब हो सकता है पर इसमें लिखे एक-एक शब्द के निहितार्थ हैं जिनका सम्यक ज्ञान सभी को होना जरूरी है। आजाद भारत की पवित्र संसद में सांसद ही उसकी गरिमा से खिलवाड़ कर रहे हैं तो सड़कों पर चिल्लाने वाले नेता संविधान का मखौल उड़ाने से कभी बाज नहीं आते। आज लोकतांत्रिक राजनीति से जनता का विश्वास डिगाने के कुत्सित प्रयास और साजिशें रची जा रही हैं तो संविधान का पाठ स्कूल के बस्तों में बंद कर दिया गया है। हमारा गणतंत्र दिवस अब शायद ही किसी के लिए नसीहत हो। यह पवित्र दिन संविधान के भावों को समझने की जगह मौज-मस्ती का दिन हो गया है। समाज में इन विद्रूपताओं के विस्तारीकरण का ही नतीजा है कि आज राजनीतिज्ञ अपने आपको संविधान से बड़ा मानने की कुचेष्टा कर रहे हैं।
देश की राजनीति को अपराधियों से निजात दिलाने के लिए समय-समय पर बहुत कुछ कहा-सुना जा चुका है पर उसमें अमल की बात हमेशा बेमानी साबित हुई है। हमारी धर्म संसद ने जुलाई, 2013 में अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने की व्यवस्था दी थी तो उच्चतम न्यायालय ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ लम्बित आपराधिक मामलों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी करने का फरमान भी सुना रखा है। देखा जाए तो मुल्क में फिलवक्त अनुमानत: 14 फीसदी सांसद और 31 फीसदी विधायकों के खिलाफ अदालतों में संगीन अपराधों में संलिप्त होने के आरोप में मुकदमे चल रहे हैं। इस गम्भीर स्थिति को देखते हुए ही न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा आठ के दायरे में आने वाले अपराधों के आरोप में संलिप्त सांसदों और विधायकों के खिलाफ लम्बित मुकदमों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी करने के निर्देश निचली अदालतों को दिये हैं। इस निर्देश में स्पष्ट है कि इस कानून की धारा आठ के दायरे में आने वाले अपराधों के सन्दर्भ में उन सांसदों और विधायकों के खिलाफ लम्बित मुकदमों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी की जाये, जिनमें अदालतों में अभियोग निर्धारण करने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है।
जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा आठ में सभी प्रकार के गंभीर किस्म के अपराध शामिल हैं। इसके दायरे में भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत आने वाले कई अपराधों को शामिल किया गया है। मसलन इसकी धारा 153-ए के तहत धर्म, मूलवंश, जन्म स्थान, निवास स्थान, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच सौहार्द्र बिगाड़ने के अपराध, धारा 171-ई के तहत रिश्वतखोरी, धारा 171-एफ के तहत चुनाव में फर्जीवाड़े के अपराध, धारा 376 के तहत बलात्कार और यौन शोषण सम्बन्धी अपराध, धारा 498-ए के तहत अर्धांगिनी के प्रति पति या उसके रिश्तेदारों के क्रूरता के अपराध, धारा 505 (2) या (3) के तहत किसी धार्मिक स्थल या धार्मिक कार्यों के लिये एकत्र समूह में विभिन्न वर्गों में कटुता, घृणा या वैमनस्यता पैदा करने वाले बयान देने से सम्बन्धी अपराध के लिये दोषी ठहराये जाने की तिथि से छह साल तक ऐसा व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य होता है।
मुल्क में पारदर्शितापूर्ण राजनीति की मुखालफत आमजन के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग भी कर रहा है। पिछले साल अपराधियों को चुनाव से दूर रखने के लिए लगभग सभी राजनीतिक दल एक राय थे, पर चुनावी रणभेरी बजते ही लोग अपने उसूलों को भूल बैठे। कांग्रेस हो या भाजपा या दीगर दल सोलहवीं लोकसभा की वैतरणी पार करना ही सबका एकमात्र मकसद हो गया है। सोलहवीं लोकसभा की तस्वीर पूरी तरह से साफ नहीं हुई है लेकिन अब तक घोषित प्रत्याशियों पर नजर डालें तो नहीं लगता कि अपराधियों से पिण्ड छुड़ाने को राजनीतिक दल तैयार हैं। यही वजह है कि अमूमन हर दल से अपराधी दम ठोक रहे हैं। जिस तरह से अपराधी चुनावी रण में उतर रहे हैं, उसे सोलहवीं लोकसभा के लिए खुशखबर नहीं कहा जा सकता। उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद ऐसे आपराधिक नेताओं के लिये आने वाला समय परेशानी का सबब हो सकता है। ऐसे नेताओं की सदस्यता खत्म होने के कारण सम्बन्धित निर्वाचन क्षेत्र में फिर से उपचुनाव कराने की नौबत जरूर आएगी। मुल्क बार-बार चुनाव के फेर में न फंसे इसलिए बेहतर होगा कि सभी राजनतिक दल ऐसे व्यक्तियों को चुनाव में टिकट दें जोकि साफ-सुथरी छवि के हों। अपराधी किसी का सगा नहीं होता इस बात का भान सभी पार्टी प्रमुखों को होना चाहिए।  

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