Thursday 28 September 2017

हिन्दी साहित्य में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान

श्रीप्रकाश शुक्ला
हिन्दी साहित्य की समृद्धि में पत्र-पत्रिकाओं का बहुत बड़ा योगदान है। कुछ पत्रिकाएं तो आज भी पाठकों की जुबां पर रची-बसी हैं तो कुछ आर्थिक तंगहाली के चलते अतीत का हिस्सा बन चुकी हैं। पत्र-पत्रिकाओं ने हिन्दी साहित्य की मशाल को जलाने का ही काम नहीं किया बल्कि जन-जागरूकता में भी अहम भूमिका निभाई है। हमारे देश में पत्रिकाओं के अभ्युदय का बहुत पुराना इतिहास है लेकिन पर्याप्त शासकीय प्रोत्साहन के अभाव में कोई भी पत्रिका लम्बा सफर तय नहीं कर सकी। भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से मानी जाती है। इसका श्रेय राजा राममोहन राय को दिया जाता क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ने की कोशिश की और भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया। समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किये और अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की।
पत्र-पत्रिकाएं मानव समाज की दिशा-निर्देशिका मानी जाती हैं। समाज के भीतर घटती घटनाओं से लेकर परिवेश की समझ उत्पन्न करने का कार्य पत्रकारिता का प्रथम कर्तव्य है। राजनीतिक, सामाजिक चिन्तन की समझ पैदा करने के साथ विचार की सामर्थ्य पत्रकारिता के माध्यम से ही उत्पन्न होती है। पत्रकारिता की यह यात्रा कब और कैसे आरम्भ हुई और किन पड़ावों से गुजर कर राष्ट्रीयता के मिशन से व्यावसायिकता में बदल गई, सर्वविदित है। भारत में आजादी से पूर्व का युग राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय चेतना की अनुभूति के विकास का युग था। इस युग का मिशन और जीवन का उद्देश्य एक ही था- स्वाधीनता की चाह और प्राप्ति का प्रयास। इस प्रयास के तहत ही हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का अभ्युदय हुआ। तब अहिन्दी भाषी क्षेत्रों ने भी हिन्दी भाषा को न केवल राष्ट्रीय अस्मिता का वाहक माना बल्कि हिन्दी भाषा की पत्र-पत्रिकाओं के संवर्धन में अपना योगदान भी दिया।
समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं का मूल उद्देश्य सदैव जनता की जागृति और जनता तक विचारों का सही सम्प्रेषण करना रहा है। महात्मा गांधी के शब्दों में समाचार पत्र का पहला उद्देश्य जनता की इच्छाओं, विचारों को समझना और उन्हें व्यक्त करना, दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना तथा तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करना है। समाचार-पत्र और पत्रिकाओं ने इन उद्देश्यों को अपनाते हुए आरम्भ से ही भारतीयों के हित के लिए विचार को जागृत करने का कार्य किया। अतीत में उदन्त मार्तण्ड जहां हिन्दीभाषी शब्दावली का प्रयोग कर भाषा निर्माण का प्रयास कर रहा था वहीं काशी से निकलने वाला प्रथम साप्ताहिक पत्र बनारस अखबार पूर्णतया उर्दू और फारसीनिष्ठ रहा। भारत में भारतेन्दु के आगमन से पूर्व ही पत्रकारिता का आगाज हो चुका था। हिन्दी भाषा का प्रथम समाचार-पत्र उदन्त मार्तण्ड 30 मई, 1826 को कानपुर निवासी पण्डित युगल किशोर शुक्ल ने निकाला। सुखद आश्चर्य की बात यह थी कि यह पत्र बंगाल से निकला और बंगाल में ही हिन्दी पत्रकारिता के बीज प्रस्फुटित हुए।
वर्ष 1780 में प्रकाशित बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र है। इस समाचार पत्र के संपादक गंगाधर भट्टाचार्य थे। इसके अलावा राजा राममोहन राय ने मिरातुल, संवाद कौमुदी, बंगाल हैराल्ड पत्र भी निकाले और लोगों में चेतना फैलाई। पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का प्रमुख उद्‌देश्‍य जनता-जनार्दन में पवित्र भावना को उत्‍पन्‍न कर उसे अन्‍याय एवं अत्‍याचार के खिलाफ मुखर करना होता है। सन्‌ 1868 में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने साहित्‍यिक पत्रिका कवि वचन सुधा का प्रकाशन कर हिन्दी की गरिमा को चार चांद लगाने की शुरुआत की, इसके बाद हिन्दी पत्रिकाओं के प्रकाशन में तेजी आई और आलोचना, वसुधा, अक्षर पर्व, वागर्थ, आकल्प, साहित्य वैभव, परिवेश, कथा, संचेतना, संप्रेषण, कालदीर्घा, दायित्वबोध, अभिनव कदम, हंस आदि पत्रिकाएं हिन्दी भाषा की समृद्धि का ही प्रतीक बनीं।
भारतेन्दु ने अपने युग धर्म को पहचाना और युग को दिशा प्रदान की। भारतेन्दु ने हिन्दी पत्रकारिता के विकास के साथ ही आने वाले पत्रकारों के लिए दिशा-निर्माण किया। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं को पूर्णतया जागरण और स्वाधीनता की चेतना से जोड़ते हुए 1867 में कवि वचन सुधा का प्रकाशन किया। कवि वचन सुधा को 1875 में साप्ताहिक किया गया जबकि अनेकानेक समस्याओं के कारण 1885 में इसे बंद कर दिया गया। 1873 में भारतेन्दु ने हरिश्चंद्र मैगजीन का प्रकाशन किया जिसका नाम 1874 में बदलकर हरिश्चंद्र चन्द्रिका कर दिया गया। देश के प्रति सजगता, समाज सुधार, राष्ट्रीय चेतना, मानवीयता, स्वाधीन होने की चाह इनके पत्रों की मूल विषयवस्तु थी। स्त्रियों को गृहस्थ धर्म और जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए भारतेन्दु ने बाला बोधिनी पत्रिका निकाली जिसका उद्देश्य महिलाओं के हित की बात करना था। भारतेन्दु से प्रेरणा पाकर भारतेन्दु मण्डल के अन्य पत्रकारों ने भी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। पण्डित बालकृष्ण भट्ट का हिन्दी प्रदीप इस दिशा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रयास था। इस पत्र की शैली व्यंग्य और विनोद का सम्मिश्रण थी और व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग करते हुए जन जागृति का प्रयास करना इनका उद्देश्य था।
1857 के संग्राम से प्रेरणा लेकर भारतवासियों की जागृति का यह प्रयास चल ही रहा था कि 14 मार्च, 1878 को वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लागू कर दिया गया। लार्ड लिटन द्वारा लागू इस कानून का उद्देश्य पत्र-पत्रिकाओं की अभिव्यक्ति को दबाना और उनके स्वातंत्र्य का हनन करना था। 1881 में पण्डित बद्रीनारायण उपाध्याय ने आनन्द कादम्बिनी नामक पत्र निकाला और पण्डित प्रताप नारायण मिश्र ने कानपुर से ब्राह्मण का प्रकाशन किया। आनन्द कादम्बिनी ने जहां साहित्यिक पत्रकारिता में योगदान दिया वहीं ब्राह्मण ने अत्यंत धनाभाव में भी सर्वसाधारण तक जानकारी पहुंचाने का कार्य किया। 1890  में हिन्दी बंगवासी ने कांग्रेस पर व्यंग्य की बौछार की वहीं 1891 में बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन ने नागरी नीरद का प्रकाशन किया। भारतीयों में राष्ट्र चेतना के बीज बोना और अंग्रेजों की काली करतूतों का पर्दाफाश करना इस पत्र का उद्देश्य था। भारतेन्दु युग राष्ट्रीय चेतना के प्रसार का युग था। इस दौर में पत्रकारों का उद्देश्य किसी भी प्रकार की व्यावसायिक पत्रकारिता को प्रश्रय देना नहीं था। वह पत्रकारिता का सही दिशा में सदुपयोग करते हुए आमजन के भीतर वह जोश एवं उमंग भरना चाहते थे जिसके द्वारा वह स्वयं खड़े होने का साहस कर सकें।
हिन्दी साहित्य का दिशा-निर्देश करने वाली पत्रिका सरस्वती का प्रकाशन जनवरी 1900 में हुआ जिसके संपादक मण्डल में जगन्नाथ दास रत्नाकर, राधाकृष्ण दास, श्यामसुंदर दास जैसे सुप्रसिद्ध विद्वतजन थे। 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका कार्यभार सम्हाला और उन्होंने साहित्यिक और राष्ट्रीय चेतना को स्वर प्रदान किया। द्विवेदी जी ने भाषा की समृद्धि कर नवीन साहित्यकारों को राह दिखाई। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से ज्ञानवर्धन करने के साथ-साथ नए रचनाकारों को भाषा का महत्व समझाया व गद्य और पद्य के लिए राह निर्मित की। 1901 में प्रकाशित होने वाले पत्रों में चंद्रधर शर्मा गुलेरी का समालोचक महत्वपूर्ण है। इस पत्र का दृष्टिकोण आलोचनात्मक था और इसी दृष्टिकोण के कारण यह पत्र चर्चित भी रहा। 1905 में काशी से भारतेन्दु पत्र का प्रकाशन हुआ। यह पत्र भारतेन्दु हरिश्चंद्र की स्मृति में निकाला गया। 1907 का वर्ष समाचार पत्रों की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा। महामना मदन मोहन मालवीय ने अभ्युदय का प्रकाशन किया वहीं बाल गंगाधर तिलक के केसरी की तर्ज पर माधवराव सप्रे ने हिन्दी केसरी का प्रकाशन किया। 1910 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप का प्रकाशन किया। यह पत्र उग्र एवं क्रांतिकारी विचारधारा का पोषक था। उग्र नीतियों के समर्थक इस पत्र ने उत्साह एवं क्रांति के पोषण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
देखा जाए तो भारत में छायावाद काल में पत्रिकाओं का प्रकाशन अधिक हुआ। इस काल की प्रमुख पत्रिकाओं में इन्दु, प्रभा, चांद, माधुरी, शारदा, मतवाला आदि थीं। इस दौर में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा आदि ने भी पत्रिकाएं निकालीं। इन साहित्यकारों ने अपने लेखों के माध्यम से जनजागृति का कार्य किया। 1909 में जयशंकर प्रसाद ने इन्दु पत्रिका का प्रकाशन किया। हिन्दी काव्यधारा में छायावाद का आरम्भ इसी पत्रिका से हुआ। प्रभा का प्रकाशन सन् 1913 में हुआ। इसके संपादक कालूराम गंगराडे थे। इस पत्रिका ने ही माखनलाल चतुर्वेदी जैसे राष्ट्रीय चेतना के कवि को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत एवं स्थापित किया। माखनलाल चतुर्वेदी ने इस पत्र को उग्र एवं सशक्त स्वर जागरण का माध्यम बनाया। माधुरी का प्रकाशन 1921 से हुआ। यह छायावाद की प्रमुख पत्रिका थी परंतु अनेक अस्थिर नीतियों का इसे भी सामना करना पड़ा तथापि यह छायावाद की सबसे लोकप्रिय पत्रिका रही। विष्णु नारायण भार्गव इस पत्रिका के संस्थापक थे। 1922 में रामकृष्ण मिशन से जुड़े स्वामी माधवानन्द के संपादन में समन्वय का प्रकाशन हुआ। यह मासिक पत्र था। यह पत्र निराला की सूझ-बूझ और उनके पाण्डित्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। सुधा का संपादन 1927 में दुलारे लाल भार्गव व पण्डित रूपनारायण पाण्डेय ने किया। इस पत्रिका का मूल उद्देश्य बेहतर साहित्य के साथ ही लेखकों को प्रोत्साहन देना, कृतियों को पुरस्कृत करना व विविध विषयों पर लेख छापना था। एक ओर इन पत्रिकाओं के माध्यम से स्वच्छंदतावाद की स्थापना हुई वहीं सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं को स्वर मिला। इस दौर में चांद पत्रिका का प्रकाशन हुआ जिसमें महादेवी वर्मा का अधिकांश साहित्य छपा। प्रेमचंद ने 1932 में जागरण और 1936 में हंस का प्रकाशन किया। हंस का उद्देश्य समाज का आह्वान था। हंस साहित्यिक पत्रिका थी जिसमें साहित्य की विविध विधाओं का प्रकाशन किया जाता था। गांधीजी की नीतियों का समर्थन, स्वराज्य स्थापना के लिए जागरण का प्रयास और साहित्यिक विधाओं का विकास ही हंस का लक्ष्य था। प्रेमचंद के पश्चात् शिवरानी देवी, विष्णुराव पराड़कर, जैनेन्द्र, शिवदान सिंह चौहान, अमृतराय ने इस पत्रिका का संपादन किया। हंस अब नए रूप और नए आदर्श यथार्थ का आईना है। अब इसका प्रमुख स्वर किसान, स्त्री एवं दलित पीड़ा है।
1947 में मिली स्वतंत्रता के पश्चात् भारत को लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने और इसकी सम्प्रभुता की रक्षा करने का संकल्प प्रत्येक भारतवासी ने किया। अपनी भाषा की समृद्धि और उसका विकास करने की चाह सभी के हृदय में विद्यमान थी परंतु धीरे-धीरे राजभाषा विधेयकों के माध्यम से हिन्दी की उपेक्षा करके अंग्रेजी को उसके माथे पर बिठाने की तैयारी की योजनाएं बनने लगीं। समाचार-पत्रों के लिए सबसे अधिक संकट की घड़ी आपातकाल की थी जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन किया गया और सृजन पर रोक लगा दी गई। यह पत्रकारों के लिए अंधेरी सुरंग में से गुज़रने जैसा कठोर यातनादायक अनुभव था। धीरे-धीरे पत्रों पर भी व्यावसायिकता हावी होने लगी। पत्रों को स्थापित होने के लिए अर्थ की आवश्यकता हुई और अर्थ की सत्ता उद्योगपतियों के हाथों में होने के कारण इनके द्वारा ही पत्रों को प्रश्रय प्राप्त हुआ। ऐसे में उद्योगपतियों के हितों को ध्यान में रखना पत्रों का कर्तव्य हो गया। जो भी हो आजाद भारत में भी अनेक उत्कृष्ट साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत हुई। धर्मयुग, उत्कर्ष, ज्ञानोदय, कादम्बिनी, नया ज्ञानोदय, सरिता, आलोचना, इतिहास बोध, हंस आदि पत्रिकाएं आज भी भारतीय साहित्य के यशगान का ही काम कर रही हैं। यह बात अलग है कि पत्र-पत्रिकाओं में नवीन विचारों और मान्यताओं को प्रश्रय मिलने के कारण भाषा व शिल्प में लचीलापन आया है। कविताओं में छंदबद्धता के प्रति आग्रह टूटा है। फिलवक्त अखण्ड ज्योति पत्रिका जहां धर्म और अध्यात्म को स्थान दे रही है वहीं योजना में उद्योग जगत् की खबरों को प्रमुखता मिल रही है। फिल्मी दुनिया, फिल्मी कलियाँ जहां मनोरंजन उद्योग की तस्वीर उकेरती हैं वही गृहशोभा, मनोरमा स्त्रियों के निजी संसार में हस्तक्षेप करती हैं। बच्चों के लिए चन्दा मामा, नन्हें सम्राट, चंपक नए क्षितिज खोलती हैं वही विज्ञान डाइजेस्ट विज्ञान के नए आविष्कारों से परिचय कराती है।










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