Saturday, 16 September 2017

तो बदल जाएगी भारतीय फुटबाल की सूरत

                 
भारतीय युवाओं में उलटफेर करने की क्षमता
                  अण्डर-17 विश्व कप
         श्रीप्रकाश शुक्ला
दुनिया के नम्बर एक खेल फुटबाल का महासंग्राम भारत में होना खेलप्रेमियों के लिए बेशक खुशखबर है लेकिन आलोचकों को यह फैसला रास नहीं आ रहा। बहुत से लोग इसे फिजूलखर्ची मान रहे हैं लेकिन भारतीय जांबाज युवा टोली को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। बेशक फुटबाल में हम अर्श से फर्श पर आ गये हों लेकिन हम जीत ही नहीं सकते, गिरकर खड़े नहीं हो सकते यह सोचना गलत बात है। आज दुनिया में जिस भारतीय क्रिकेट की तूती बोलती है 1983 के पहले उसका भी बुरा हाल था। जय-पराजय खेल का हिस्सा है। अण्डर-17 विश्व कप के आयोजन से जहां हमारे पास मुकम्मल फुटबाल मैदान हो जाएंगे वहीं प्रतिभाओं की इस खेल के प्रति दिलचस्पी भी बढ़ेगी। आयोजन होंगे उत्सुकता बढ़ेगी, जीतने का कौशल सीखेंगे और एक दिन हम जीतेंगे भी।
खेल कोई भी हो हमारे खिलाड़ी बहुत पीछे नहीं हैं। भारत की अण्डर-17 फुटबाल विश्व कप टीम ने 20 मई, 2017 को अरिजो में मेजबान इटली को एक मैत्री मैच में 2-0 से हराते हुए इस बात के संकेत दिए थे कि युवाओं के विश्व कप में मेजबान भारत को कमतर नहीं माना जाना चाहिए। फीफा अण्डर-17 फुटबाल विश्व कप की मेजबानी का जहां तक सवाल है भारत ने आयरलैंड, उज्बेकिस्तान और अजरबेजान जैसे मुल्कों को पीछे छोड़ते हुए इस प्रतिष्ठित प्रतियोगता की मेजबानी हासिल की है। छह से 28 अक्टूबर तक आयोजित होने वाले विश्व कप में कुल दो दर्जन टीमें हिस्सा ले रही हैं जिनमें 23 टीमें क्वालीफाइंग के बाद प्रतियोगता में शिरकत कर रही हैं तो भारतीय टीम को मेजबान होने के चलते पैर की जादूगरी दिखाने का मौका मिला है। विश्व कप के सभी मुकाबले दिल्ली, गुवाहाटी, मुंबई, गोवा, कोलकाता और कोच्चि के मैदानों में खेले जाएंगे जबकि खिताबी मुकाबला 28 अक्टूबर को कोलकाता में खेला जाएगा।
भारतीय टीम की जहां तक बात है, पिछले चार साल से उसने विश्व कप की तैयारियां मुकम्मल की हैं, इस युवा टीम में जीत की भूख भी है ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे खिलाड़ी अपनी धरती और अपने दर्शकों के बीच दमदार प्रदर्शन करेंगे। पिछले चार साल में भारतीय जांबाजों ने भारतीय फुटबाल को चार चांद लगाए हैं। दुनिया  के नम्बर एक खेल में भारत का लगातार ऊंचा उठता स्तर कोई संयोग नहीं है। भारतीय खिलाड़ियों ने कड़ी मेहनत और जज्बे से कई अविश्वसनीय सफलताएं हासिल की हैं। अण्डर-17 फुटबाल विश्व कप में कई मंझी हुई और अनुभवी टीमें होंगी जबकि भारत पहली बार इतने बड़े और प्रतिष्ठित मैदानी जलसे में अपना जलवा दिखाएगा। भारत के लिए यह टूर्नामेंट बेशक चुनौतीपूर्ण होगा लेकिन भारतीय फुटबाल प्रेमियों को इस बात का संतोष जरूर होना चाहिए कि टीम सही दिशा में बढ़ रही है। खेलप्रेमियों के लिए यह अच्छी खबर है कि क्रिकेट के साथ-साथ अन्य खेलों में भी भारत की स्थिति लगातार सुधर रही है। फुटबाल की बात करें तो भारत ने खिलाड़ियों की कड़ी मेहनत और बुलंद हौसले की बदौलत ही 20 साल बाद फीफा रैंकिंग में खासा सुधार किया है। भारत की सर्वश्रेष्ठ फीफा रैंकिंग 94 रही है, जो उसने फरवरी 1996 में हासिल की थी। पिछले दो वर्षों में भारतीय टीम ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 13 मैचों में 11 में फतह हासिल करते हुए कुल 31 गोल दागे हैं।
फुटबाल की जहां तक बात है यह खेल दुनिया में 200 साल पहले से खेला जा रहा है। भारतीय राष्ट्रीय फुटबाल की जहां तक बात है 1948 से वह अंतरराष्ट्रीय फुटबाल महासंघ से जुड़ा हुआ है। आजादी के बाद से भारतीय फुटबाल महासंघ एशियाई फुटबाल महासंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक है। भारतीय फुटबाल टीम ने पहली और अंतिम बार 1950 में फीफा विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया था लेकिन नंगे पैर खेलने की आदत के चलते वह सुनहरा मौका दोबारा हासिल नहीं हुआ। भारतीय टीम ने अब तक दो एशियाई खेलों में स्वर्ण तथा एएफसी एशिया कप में एक बार रजत जीता है। भारतीय टीम ने 1930 में ही आस्ट्रेलिया, जापान, मलेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड के दौरे शुरू कर दिए थे। कई भारतीय फुटबाल क्लबों की सफलता के बाद 1937 में अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ अस्तित्व में आया। 1948 का लंदन ओलम्पिक भारतीय टीम के लिए पहला बड़ा टूर्नामेंट था जहां उसे फ्रांस से 2-1 से पराजय स्वीकारनी पड़ी थी। 1951 से 1962 के कालखण्ड को भारतीय फुटबाल का स्वर्ण युग माना जाता है। तब सैय्यद अब्दुल रहीम के प्रशिक्षण में भारतीय टीम एशिया की सर्वश्रेष्ठ टीमों शुमार की जाने लगी थी।
भारतीय टीम ने अपनी ही मेजबानी में 1951 के एशियाई खेलों का स्वर्ण जीता तो 1954 में मनीला में हुए एशियाई खेलों में भारत को ग्रुप चरण में दूसरा स्थान मिला। 1956 के ओलम्पिक खेलों में भारत ने चौथा स्थान प्राप्त किया। यही भारतीय टीम की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। पहले एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक के बाद भारतीय टीम ने 1962 के एशियाई खेलों में दक्षिण कोरिया को 2-1 से हराकर एक बार फिर स्वर्ण पदक पर कब्जा जमाया। 1964 के एशिया कप में भारत उपविजेता रहा। 1964 के बाद भारतीय टीम का प्रदर्शन गिरता ही चला गया। 1982 के दिल्ली एशियाई खेलों में भारतीय टीम क्वार्टर फाइनल तक ही पहुंच सकी। इसके बाद भारतीय टीम 20 वर्षों बाद 1984 के एशिया कप के लिए क्वालीफाई करने के बावजूद पदक जीतने से वंचित रही। हैदराबाद की मेजबानी में 2003 में हुए एफ्रो-एशियन खेलों में भारतीय टीम ने शानदार प्रदर्शन करते हुए रजत पदक जीता परिणामस्वरूप भारतीय टीम के तात्कालिक कोच स्टेफेन कोंसटेनटाइन की जमकर प्रशंसा हुई। 2006 में बॉब हॉटन भारतीय टीम के कोच बने उनके मार्गदर्शन में टीम ने 2007 में नेहरू कप तो 2008 में एएफसी चैलेंजर्स कप जीता जिसके फलस्वरूप 27 वर्षों बाद एशिया कप में भारतीय टीम को खेलने का मौका मिला। भारतीय टीम ने 2009 में पुनः नेहरू कप जीतने के बाद 2011 में एफसी एशिया कप में भाग तो लिया लेकिन अपने सभी मुकाबले हार गया। भारत में फुटबाल की जहां तक बात है यहां के मैदान फीफा की नियमावली पर खरे नहीं उतरते वहीं यह खेल कुछ शहरों तक ही सीमित है। अण्डर-17 विश्व कप के आयोजन से हमारे देश में फुटबाल के छह अंतरराष्ट्रीय मैदान हो जाएंगे। अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ के अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल और महासचिव कुशाल दास का मानना है कि विश्व कप के इस आयोजन से समूचे देश में फुटबाल की अलख जगेगी और इस खेल का भला होगा। भारत में फुटबाल की लोकप्रियता बढ़ाने में इण्डियन सुपर लीग का अहम योगदान है। इण्डियन सुपर लीग में रॉबर्टो कार्लोस, विसेंट काल्डेरोन, वेस्ट ब्रोंविच एल्बिअन जैसे खिलाड़ियों ने खेलकर एक तरह से सोते भारतीय खिलाड़ियों को जगा दिया है। एक दिन में सब कुछ नहीं बदल सकता लेकिन इण्डियन सुपर लीग से दुनिया की नजर भारत पर जरूर पड़ी है। भारत में फुटबाल की स्थिति बदली है अब विदेशी खिलाड़ी भी भारत को फुटबाल खेलने की एक अच्छी जगह मानने लगे हैं।
इण्डियन सुपर लीग ने अपने पहले ही सीजन में जो मुकाम हासिल किया उसकी कल्पना शायद ही किसी ने की हो। इससे भारत को विश्व फुटबाल जगत में एक पहचान मिली है। अण्डर-17 विश्व कप की मेजबानी मिलना भी इण्डियन सुपर लीग के चलते ही सम्भव हो सका। भारत की सफल मेजबानी यूरोपियन निवेश की सम्भावना को पर लगा सकती है। इण्डियन सुपर लीग ने जहां बड़े-बड़े खिलाड़ियों को अपनी ओर आकर्षित किया है वहीं भारतीय खिलाड़ियों में भी जोश पैदा हुआ है। विश्व कप से भारतीय खिलाड़ियों को बहुत फायदा होगा तथा उन्हें काफी कुछ सीखने को मिलेगा। इस आयोजन से व्यावसायिक विकास के जहां द्वार खुलेंगे वहीं युवा खिलाड़ी फुटबाल खेल में अपना करियर संवारने की कोशिश करेंगे। दरअसल, इण्डियन सुपर लीग से अच्छे विदेशी कोच और अनुभवी विदेशी खिलाड़ियों के जुड़ने से भारतीय खिलाड़ियों के स्तर में भी सुधार हुआ है और उन्होंने अपने खेल पर फोकस किया है। संदेश झिंगन इसका जीवंत उदाहरण है।
फुटबाल को हमेशा भारत में क्रिकेट के सामने कमतर आंका गया। इसका श्रेय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय क्रिकेट के प्रदर्शन और इसका समर्थन करने वाले भारतीय खेलप्रेमियों को जाता है। ऐसा नहीं कि भारत में फुटबाल की हालत हमेशा से खराब रही है। 1950 और 60 के दशक में इण्डियन फुटबाल का सुनहरा दौर था जब भारतीय टीम को एशिया की सबसे बेहतरीन टीमों में गिना जाता था। भारत के पास हमेशा नायाब खिलाड़ी तो रहे लेकिन एक टीम को रूप में सफलताएं कम ही नसीब हुईं।
ये हैं भारतीय फुटबाल की पहचान
क्लाइमेक्स लॉरेंस
क्लाइमेक्स लॉरेंस एक दशक तक भारतीय टीम की धुरी रहे वह सालगांवकर, ईस्ट बंगाल, डेम्पो जैसे क्लबों के लिए भी खेले। लॉरेंस मैदान में तो एक खतरनाक मिडफील्डर थे पर स्वभाव से बहुत ही सीधे और सरल इंसान थे। जब तक वह टीम का हिस्सा रहे उनके बारे में कोच या किसी ने भी कभी कोई सवाल नहीं उठाए। लॉरेंस के करियर में सबसे बेहतरीन पल 2008 एएफसी चैलेंज कप के फाइनल में आया जब उन्होंने अफगानिस्तान के खिलाफ 91वें मिनट में अपनी टीम को जीत दिलाई। क्लाइमेक्स के नाम 74 इंटरनेशनल कैप्स हैं जो उनके अलावा केवल भूटिया, विजयन और छेत्री जैसे महान खिलाड़ी ही हासिल कर सके हैं।
गोस्था पाल
गोस्था पाल का नाम भारतीय फुटबाल में बहुत इज्जत से लिया जाता है। पाल अपने पूरे करियर के दौरान नंगे पांव खेले। उन्हें अपने दौर का बेहतरीन डिफेंडर माना जाता था। फुटबाल प्रेमी गोस्था पाल को चीन की दीवार कहते थे। पाल मोहन बागान के लिए 1912 से 1936 तक खेले जिसमें वह 1921 से 1936 तक टीम के कप्तान रहे। 1924 में पाल भारतीय टीम के कप्तान बने। तगड़ी कद काठी वाले इस प्लेयर को विदेशी धरती पर पहला भारतीय फुटबाल कप्तान बनने का गौरव हासिल हुआ। गोस्था का जन्म बांगलादेश में हुआ था। पाल पहले भारतीय फुटबॉलर थे जिन्हें 1962 में पद्मश्री जैसे खिताब से नवाजा गया। 9 अप्रैल, 1976 को इस महान खिलाड़ी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। पाल की याद में कोलकाता के ईडन गार्डन में उनकी एक प्रतिमा बनाई गई और शहर की एक सड़क का नाम भी उनके नाम पर रखा गया।
पीटर थंगराज
पीटर थंगराज को अगर हम भारतीय फुटबाल इतिहास का सबसे महान गोलकीपर कहें तो गलत नहीं होगा। लम्बे कद के इस खिलाड़ी का अकेले दम कड़े संरक्षण का लोहा पूरे देश में माना जाता था। हैदराबाद में पैदा हुए थंगराज ने अपने करियर की शुरुआत मद्रास रेजीमेंटल सेण्टर से सेण्टर फॉरवर्ड खिलाड़ी के रूप में की। 1955 और 1958 में अपनी टीम को डूरंड कप जिताने में थंगराज का खासा योगदान रहा। उन्होंने 1955 में नेशनल टीम में डेब्यू किया। थंगराज के रूप में दशकों बाद भारत को एक शानदार गोलकीपर मिला था। अपने बेहतरीन इंटरनेशनल करियर के दौरान थंगराज 1956 और 1960 के ओलम्पिक में भारतीय टीम का हिस्सा रहे और इसके साथ ही 1958 और 1962 में टोक्यो और जकार्ता एशियन गेम्स में भारत की कमान सम्हाली जहां भारत ने स्वर्ण पदक जीते। थंगराज को 1958 में एशिया के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर के लिए नामित किया गया और 1967 में उन्हें अर्जुन अवॉर्ड मिला। पीटर दो बार एशियन ऑल स्टार्स टीम का हिस्सा रहे और 1971 में उन्हें सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर के सम्मान से नवाजा गया और 1971 में उन्होंने अपने फुटबॉल के बेहतरीन करियर को अलविदा कहा।
जरनैल सिंह ढिल्लन
ढिल्लन भारतीय फुटबाल के दिग्गज नामों में से एक हैं। जकार्ता में 1962 में हुए एशियन गेम्स में भारत की शानदार जीत में जरनैल सिंह के बेहतरीन प्रदर्शन का बड़ा योगदान रहा। जरनैल भारत के लिए अब तक के सबसे बेहतरीन डिफेंडर माने जाते हैं जो जरूरत पड़ने पर टीम के लिए स्ट्राइकर रूप में भी खेलते रहे। पंजाब से ताल्लुक रखने वाले जरनैल अपने फुटबाल खेलने के सपने को पूरा करने के लिए 1936 में कोलकाता चले आए। पहले वह राजस्थान क्लब और फिर मोहन बागान के लिए खेले जहां वे हरी और महरून जर्सी में एक बेजोड़ खिलाड़ी के रूप में जाने जाते थे। जरनैल मैदान में एक तेज-तर्रार डिफेंडर रहे। 1962 के एशियन गेम्स जकार्ता में सेमीफाइनल मैच के दौरान चोटिल होने के बावजूद फाइनल में उनके बेहतरीन योगदान को हमेशा याद किया जाता है जबकि उन्हें चोट की वजह से 6 टांके आए थे। इस मैच में कोच सैयद अब्दुल रहीम ने उन्हें सेण्टर फॉरवर्ड खेलने को कहा और जरनैल सिंह ने अपने सिर से एक गोल जड़ दिया। वे इकलौते ऐसे भारतीय फुटबालर थे जिन्होंने उस समय अपनी जगह एशियन ऑल स्टार टीम में बनाई थी। 1964 में जरनैल सिंह को अर्जुन अवॉर्ड मिला। सन् 2000 में इस महान खिलाड़ी ने अपनी आखिरी सांस ली।
सुबीमाल चुनी गोस्वामी
ये फुटबालर सिर्फ चुनी गोस्वामी के नाम से जाना जाता रहा। गोस्वामी 1962 एशियन गेम्स जकार्ता में विजयी रही भारतीय टीम के कप्तान थे और उन्होंने 1964 एशिया कप साकर टूर्नामेंट में टीम को रजत पदक दिलाया था। चुनी एक बेहतरीन स्ट्राइकर थे जो अपनी सूझबूझ, गेंद पर नियंत्रण और खेल की शानदार समझ के लिए जाने जाते थे। गोस्वामी दूसरे खेलों के भी अच्छे जानकार थे। उन्होंने बंगाल के लिए प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेलते हुए रणजी ट्रॉफी में भी भाग लिया। 1938 में बंगाल में जन्मे इस खिलाड़ी ने मोहन बागान क्लब आठ साल की छोटी सी उम्र में ज्वॉइन किया। वे अपने करियर में कभी किसी और क्लब के लिए नहीं खेले। गोस्वामी का नेशनल टीम में पदार्पण 1956 में हुआ जब भारतीय टीम ने चाइना की ओलम्पिक टीम को 1-0 से शिकस्त दी। वे भारतीय टीम के लिए लगभग 50 मैच खेले और 32 गोल किए। गोस्वामी 1962 में सर्वश्रेष्ठ एशियाई स्ट्राइकर के लिए नामित किये गए। 1963 में उन्हें अर्जुन और 1983 में पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया।
सुनील छेत्री
इस भारतीय फुटबॉल खिलाड़ी को किसी परिचय की जरूरत नहीं है। सिकंदराबाद में जन्मे इस स्ट्राइकर ने हाल के दिनों में भारतीय फुटबॉल को नई ऊंचाइयां दी हैं। सुनील छेत्री भारतीय टीम के कप्तान होने के साथ-साथ टीम के सबसे ज्यादा कैप वाले और सबसे अधिक 91 मैचों में 51 गोल करके टॉप स्कोरर हैं। छेत्री ने अपने फुटबाल सफर की शुरुआत मोहन बागान से की और 2005 में वह पंजाब से खेले। 2010 में अमेरिका के मेजर लीग सॉकर में कैन्सस सिटी विजार्ड्स की तरफ से खेलते हुए उनकी क्षमता को अलग पहचान मिली। हालांकि वहां वह अपनी छाप नहीं छोड़ पाये फिर भी उनके चाहने वालों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। छेत्री के जीवन का एक बड़ा मौका तब आया जब वे यूएस में मैनचेस्टर यूनाइटेड के खिलाफ फ्रैंडली मैच खेलने मैदान में उतरे। छेत्री के जीवन में एक और बड़ा मौका तब आया जब उन्हें स्पोर्टिंग पुर्तगाल टीम ने अपने साथ खेलने के लिए अनुबंधित किया। दो साल के कड़े परिश्रम के बाद सुनील भारत वापस लौट आए और बैंगलूरू एफसी के लिए बतौर कप्तान आई-लीग में खेले साथ ही नेशनल टीम के लिए भी हाई गोल स्कोरर बने रहे। सुनील को 2007, 2011, 2013 और 2014 में प्लेयर ऑफ द इयर के लिए नामित किया गया।
शैलेन्द्र नाथ मन्ना
अगर हम फुटबाल के बारे में बात करें और मन्ना का जिक्र न हो तो उनके चाहने वालों के साथ नाइंसाफी होगी। भारत की धरती में पैदा हुए मन्ना फुटबाल की दुनिया के एक शानदार खिलाड़ी के रूप में गिने जाते हैं। वह 1948 में ओलम्पिक में भाग लेने वाली भारतीय टीम के हिस्सा थे। इस जादुई डिफेंडर की अगुवाई में इंडियन टीम ने 1951 के एशियन गेम्स में गोल्ड जीता और इसके अलावा 1952 से 1956 तक लगातार चार साल तक चतुष्कोणीय टूर्नामेंट जीता। वे इकलौते ऐसे एशियन खिलाड़ी रहे जिन्हें विश्व के 10 बेहतरीन कप्तानों की लिस्ट में इंग्लिश फुटबॉल एसोसिएशन ने जगह दी। इस महान खिलाड़ी का जन्म 1924 में हावड़ा में हुआ और 1942 में मन्ना फेमस मोहन बागान का हिस्सा बन गए। वह 19 साल तक निरंतर टीम के लिए खेले और रिटायरमेंट के बाद 2001 में उन्हें मोहन बागान रत्न दिया गया।
आई.एम. विजयन
विजयन भारतीय फुटबाल इतिहास का एक और ऐसा नाम है जो किसी पहचान का मोहताज नहीं है। अपनी तेजी के बल पर ब्लैक बक के नाम से मशहूर ये खिलाड़ी भारत के लिए एक महान स्ट्राइकर माना जाता है। विजयन भारतीय फुटबाल में एक कहानी की तरह ही है। फुटबालर बनने से पहले वह स्टेडियम के बाहर सोडा बेचा करते थे। फिर उनके टैलेंट को नई जमीन केरल पुलिस ने दी। उसके बाद इस खिलाड़ी ने मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने मोहन बागान, एफसी कोच्चि, ईस्ट बंगाल जैसे नामी क्लब्स की तरफ से फुटबाल खेली और एक समय वह देश के सबसे महंगे फुटबालर भी बने। विजयन ने अपने करियर के दौरान देश के लिए 79 मैच खेले और 40 गोल दागे। विजयन ने अपना इंटरनेशनल डेब्यू 1992 में किया। 2003 एफ्रो-एशियन के बाद उन्होंने फुटबाल को अलविदा कहा तब तक वह भारतीय टीम का हिस्सा बने रहे। विजयन के करियर का सबसे शानदार क्षण 1999 में आया जब उन्होंने सैफ खेलों में भूटान के खिलाफ मैच के 12वें सेकेंड में ही गोल दाग दिया। यह इंटरनेशनल फुटबाल इतिहास का अब तक का तीसरा सबसे फास्ट गोल था। विजयन के खेल को थाई और मलेशियन क्लबों में खासी सराहना मिली। आईएम विजयन इकलौते ऐसे खिलाड़ी रहे जिन्हें एक से अधिक बार प्लेयर ऑफ द ईयर का अवॉर्ड मिला। उन्होंने यह अवॉर्ड 1993, 1997 और 1999 में जीते। विजयन की तुलना अक्सर भारतीय फुटबाल के पेले से की गई।
पीके बनर्जी
अपने समय के महान स्ट्राइकर प्रमोद कुमार बनर्जी निश्चित तौर पर भारतीय फुटबाल इतिहास के बेहतरीन खिलाड़ियों में से एक हैं। पीके ने पीटर थंगराज के साथ 1955 ढाका में चार देशों के टूर्नामेंट से अपना अंतरराष्ट्रीय करियर शुरू किया। बनर्जी 1962 की एशियन गेम्स विजेता भारतीय टीम का हिस्सा रहे जहां उन्होंने जापान, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड जैसी टीमों के खिलाफ गोल दागे। बंगाल के जलपाईगुड़ी होते हुए पहले पीके ने आर्यन क्लब और फिर पश्चिमी रेलवे के लिए बतौर कप्तान खेले। 1960 के समर ओलम्पिक रोम में वे भारत के कप्तान बने जहां उन्होंने फ्रांस के सामने क्वालीफायर मुकाबले में गोल दागकर 1-1 से मैच ड्रॉ कराया। पीके ने क्वालालम्पुर मरडेका कप में भारत का तीन बार प्रतिनिधित्व किया जहां भारत ने 1959 और 1964 में सिल्वर मैडल जीता और 1965 में ब्रांज मैडल अपने नाम किया। हालांकि इस बात का कोई ऑफिसियल रिकॉर्ड नहीं है लेकिन पीके ने अपने करियर के 84 मैचों में 60 गोल किये। फीफा ने इस महान खिलाड़ी को 20वीं सदी का श्रेष्ठ भारतीय खिलाड़ी फुटबॉलर घोषित किया।
बाईचुंग भूटिया

बाईचुंग भूटिया भारत के लिए सबसे लम्बे समय तक खेलने वाले खिलाड़ी हैं। भूटिया का जन्म 15 दिसम्बर, 1976 को सिक्किम में हुआ। छोटी उम्र से ही बाईचुंग फुटबाल खेलना पसंद करते थे। 13 साल की उम्र से ही सन्तोष ट्रॉफी में शानदार जौहर दिखाने के चलते भूटिया को ईस्ट बंगाल क्लब ने अपनी टीम में शामिल किया। 1990 और 2000 के दशक में भूटिया ने भारतीय फुटबाल को अकेले दम पर आगे बढ़ाया। भूटिया और विजयन की जोड़ी का लोग लोहा मानते थे। विजयन भूटिया गाड गिफ्टेड फुटबालर मानते थे। 1995 में भूटिया ने 19 साल की उम्र में ईस्ट बंगाल के साथ अपने प्रोफेशनल करियर की शुरूआत की। उसके बाद वे भारत के लिए 100 से अधिक मैच खेले। फीफा के अनुसार आधिकारिक तौर पर उनके मैचों की संख्या 84 बताई जाती है। सन् 1999 में बाईचुंग को पहली बार विदेशी धरती पर ब्यूरी क्लब की तरफ से खेलने का मौका मिला। वह पहले ऐसे भारतीय खिलाड़ी बने जिसने यूरोपियन क्लब के साथ कॉन्ट्रेक्ट किया और मोहम्मद सलीम के बाद दूसरे ऐसे भारतीय खिलाड़ी बने जो यूरोप में प्रोफेशनल तौर पर खेले। क्लब के दिवालिया होने से पहले वे ब्यूरी के लिए 30 मैच खेले।

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