Wednesday, 9 August 2017

यू.पी. में कब उदय होगा पूनम का चांद


संघर्ष का दूसरा नाम पूनम तिवारी
श्रीप्रकाश शुक्ला
हर कोई कहता है कि अब समाज बदल रहा है। सामाजिक परम्पराएं बदल रही हैं। बेटियों को बेटों की तरह खुले आसमान में स्वच्छंद उड़ान भरने के अवसर मिल रहे हैं लेकिन टके भर का सवाल यह कि क्या हमारी हुकूमतों की सोच भी बेटियों को लेकर बदली है। यदि इस गम्भीर मसले पर विचार मंथन करें तो तस्वीर बहुत ही भयावह नजर आती है। क्या यह सच नहीं कि हमारे देश की अधिकांश महिला खिलाड़ी आज भी हालात और मजबूरियों के चलते अपने सपने साकार नहीं कर पा रही हैं। सारी योग्यताएं होने के बावजूद या तो वे खेल छोड़कर अलग-अलग तरह के काम करने को मजबूर हैं या फिर आर्थिक तंगहाली के चलते खेलतंत्र के निकम्मेपन पर आंसू बहा रही हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को ही लें, जहां का खेल मंत्री एक खिलाड़ी है बावजूद इसके यहां की खिलाड़ी बेटियां और खिलाड़ियों की खैर-ख्वाह महिला प्रशिक्षक सरकारी उपेक्षा के चलते गुरबत के दौर से गुजर रही हैं। हरदोई की पूनम तिवारी को ही लें, इस नारी शक्ति के पास बतौर वेटलिफ्टर और पावरलिफ्टर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पचासों पदक होने के साथ ही प्रशिक्षण का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज एन.आई.एस. डिग्री भी है लेकिन वह आधी उम्र बीत जाने के बाद भी संविदा प्रशिक्षक बतौर सेवाएं देने को मजबूर हैं, आखिर क्यों। कहने को हर राज्य सरकार के खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों को जांचने-परखने के कुछ मानक हैं लेकिन वेटलिफ्टिंग और पावर लिफ्टिंग को समर्पित जांबाज पूनम तिवारी सारी अर्हताएं पूरी करने के बाद भी हलाकान-परेशान हैं।
उत्तर प्रदेश में वेटलिफ्टिंग की पहली एन.आई.एस. पूनम तिवारी का जन्म सात अगस्त, 1976 को गोलोकवासी सुरेन्द्र कुमार-अन्नपूर्णा तिवारी के घर हुआ। छह भाई-बहनों में सबसे बड़ी पूनम तिवारी को बचपन से ही खेलों में विशेष रुचि रही है। हरदोई में वेटलिफ्टिंग और पावलिफ्टिंग की पहचान बन चुकी पूनम तिवारी (अब मिश्रा) की खेलों में अभिरुचि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह स्कूली दिनों में हाकी, कबड्डी, खो-खो, बास्केटबाल, वालीबाल तथा एथलेटिक्स के क्षेत्र में धूम मचाते हुए मोतियों की जगह पदकों की माला पहनती थीं। 1999 में वह मण्डलस्तरीय हाकी प्रतियोगिता में अपनी टीम की कप्तान भी रही हैं। पूनम ने खेलों के साथ ही सांस्कृतिक आयोजनों में भी खूब नाम कमाया और दर्जनों पदक जीते। खेलप्रेमियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि पूनम के सभी भाई-बहन किसी न किसी खेल के राष्ट्रीय खिलाड़ी हैं। पूनम के जीवन-साथी राजधर मिश्र भी अंतरराष्ट्रीय पावरलिफ्टर हैं। श्री मिश्र ने पावर लिफ्टिंग में देश के लिए कई मैडल जीते हैं। समाज शास्त्र विषय से परास्नातक पूनम तिवारी ने 1998 में इलाहाबाद से डिप्लोमा इन फिजिकल एजूकेशन (डीपीएड), 2001 में पटियाला से वेटलिफ्टिंग से एन.आई.एस. तथा 2008 में मिर्जापुर से बी.टी.सी. किया। पूनम तिवारी ने 2010 में नई दिल्ली से रेफरीशिप का डिप्लोमा भी हासिल किया। पूनम ने वेटलिफ्टिंग में राष्ट्रीय स्तर पर दर्जनों पदक जीते तो पावर लिफ्टिंग में इस जांबाज खिलाड़ी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि मादरेवतन का भी गौरव बढ़ाया है। पूनम ने 2002 में दक्षिण कोरिया में हुई एशियन पावरलिफ्टिंग चैम्पियनशिप में चांदी का पदक जीतकर अपनी ताकत का समूचे एशिया महाद्वीप में जलवा दिखाया।
संघर्ष और पूनम का चोली-दामन सा साथ है। जब पूनम के सपनों को अंतरराष्ट्रीय फलक पर उड़ान मिलने ही जा रही थी कि उनके सिर से पिता का साया उठ गया। कोई और लड़की होती तो मुसीबत के इन क्षणों में उसकी हिम्मत दगा दे जाती लेकिन पूनम ने अपने भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई का भार अपने कंधों पर उठा लिया। दक्षिण कोरिया में जीते चांदी के पदक के बाद उसे जो भी आर्थिक मदद मिली उसे उसने अपने पिता की बीमारी पर खर्च कर दिया। पूनम अपने पिता को तो नहीं बचा सकीं लेकिन भाई-बहनों का जीवन संवारने में कोई कोताही नहीं बरती। पूनम तिवारी लाजवाब वेटलिफ्टर और पावरलिफ्टर होने के साथ ही इन खेलों की अच्छी जानकार भी हैं। आज पूनम से प्रशिक्षण प्राप्त दर्जनों वेटलिफ्टर और पावरलिफ्टर बेटे-बेटियां राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रतिभा-कौशल का जलवा दिखा रहे हैं।
पूनम तिवारी एक दशक तक बतौर खिलाड़ी जिस भी जूनियर और सीनियर प्रतियोगिता में उतरीं उनके हाथ कोई न कोई मैडल जरूर लगा। कई खेल संगठनों का सफल संचालन कर रहीं पूनम तिवारी को उत्तर प्रदेश सरकार से बेशक न्याय न मिला हो लेकिन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय वेटलिफ्टिंग और पावरलिफ्टिंग संघों ने उनकी काबिलियत को हमेशा ही सराहा है। पूनम तिवारी के उत्तर प्रदेश टीम का प्रशिक्षक रहते खिलाड़ियों ने नेशनल स्तर पर कई स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक भी जीते हैं। पूनम को गुवाहाटी में हुए 12वें दक्षिण एशियाई खेलों (सैफ खेलों) में इंटरनेशनल रेफरी की भूमिका का निर्वहन करने के साथ ही 2010 में दिल्ली में हुए राष्ट्रमण्डल खेलों में टेक्निकल आफिसियल के रूप में भी सेवाएं देने का अवसर मिल चुका है। पूनम 2015 में पुणे में हुए यूथ कामनवेल्थ खेलों में भी इंटरनेशनल रेफरी की भूमिका का निर्वहन कर चुकी हैं। यह खिलाड़ी बेटी 22 से 25 दिसम्बर 2012 तक हरदोई में आयोजित 19वीं पुरुष और महिला पावर लिफ्टिंग प्रतियोगिता की सफल मेजबानी भी कर चुकी है।    
खेलों को पूरी तरह से समर्पित पूनम तिवारी उठते-बैठते, सोते-जगते सिर्फ खेलों की बेहतरी का ही सपना देखती हैं। खुद को अभी तक न्याय न मिलने से व्यथित पूनम बुझे मन से कहती हैं कि उत्तर प्रदेश की सल्तनत में हुए बदलाव और क्रिकेटर से खेल मंत्री बने चेतन चौहान से उन्हें काफी उम्मीदें हैं। उत्तर प्रदेश में खेल प्रतिभाओं और योग्य प्रशिक्षकों की कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ सरकारी प्रोत्साहन की। आखिर हम लोग कब तक संविदा प्रशिक्षक बतौर सेवाएं देने को मजबूर रहेंगे। हमारे पास क्या नहीं है। आखिर हम लोगों को न्याय कब मिलेगा। यदि श्री चौहान के खेल मंत्री रहते भी इंसाफ नहीं मिला तो फिर उत्तर प्रदेश में पूनम का चांद कभी उदय नहीं होगा। सरकारें बेटियों को बचाने और पढ़ाने के नाम पर अकूत पैसा खर्च कर रही हैं लेकिन जो पढ़-लिखकर काबिल बन गई हैं उनकी तरफ किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता। आखिर उत्तर प्रदेश के संविदा प्रशिक्षक कब तक बेगार करने को मजबूर होते रहेंगे।  
देखा जाए देश के अधिकांश राज्यों में खिलाड़ियों को निखारने वाले संविदा खेल प्रशिक्षक ही सर्वाधिक पीड़ित और परेशान हैं जबकि खेलों में इनका अतुलनीय योगदान है। सरकारी उपेक्षा का दंश झेल रही पूनम तिवारी के मैडल और उनके दस्तावेज चीख-चीख कर बता रहे हैं कि समाज बेशक बदलाव की अंगड़ाई ले रहा हो हमारा सरकारी खेलतंत्र आज भी कुम्भकर्णी नींद ही सो रहा है। पूनम की ही तरह उत्तर प्रदेश की मीनाक्षी रानी 1996 और 1998 में राष्ट्रीय वेटलिफ्टिंग चैम्पियनशिप में गोल्ड मैडल जीतकर सुर्खियों में आई थीं। मीनाक्षी ने एशियन जूनियर और सीनियर चैम्पियनशिप में भी कांस्य पदक हासिल किए लेकिन आज यह महिला खिलाड़ी गरीबी से जूझ रही है। सरकार ने नौकरी का आश्वासन तो कई बार दिया लेकिन आज तक उसे नौकरी नहीं मिली। खिलाड़ी बेटियों की उपेक्षा का खेल सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं अन्य राज्यों में भी बदस्तूर जारी है। झारखंड के पथमड़ा गांव की रहने वाली निशा ने जो मुकाम हासिल किया वह हर किसी को नहीं मिलता। तीरंदाजी में महारत रखने वाली निशा ने ताईवान में सर्वश्रेष्ठ तीरंदाज का खिताब अपने नाम किया था। साउथ एशियन चैम्पियनशिप में उन्होंने सिल्वर मैडल हासिल किया और सिक्किम में आयोजित राष्ट्रीय प्रतियोगिता में बेस्ट प्लेयर का अवार्ड भी जीता लेकिन किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाली निशा आज एक अदद नौकरी के लिए दर-दर भटक रही है।  

केन्द्रीय खेल मंत्री विजय गोयल खेल के क्षेत्र में मुल्क का नाम रोशन करने वाली महिला खिलाड़ियों के मामले में फिक्रमंद होने का हमेशा स्वांग करते रहते हैं। खेल मंत्री श्री गोयल ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिला खिलाड़ियों की समस्या और सुझाव सुनने तथा उनकी शिकायतों पर उचित कार्रवाई करने के लिए एक पांच सदस्यीय विशेष टीम के गठन का एलान किया था। उन्होंने कहा था कि हाई पावर कमेटी में महिला खेल पत्रकार और महिला खिलाड़ियों को विशेष रूप से शामिल किया जाएगा। यह कमेटी देश की किसी भी महिला खिलाड़ी, महिला प्रशिक्षक की शिकायत सुन सकेगी और समस्याओं का निदान भी होगा। श्री गोयल कहते हैं कि खेल मंत्रालय स्वच्छ वातावरण तैयार कर रहा है। खेल में करियर बनाने की चाह रखने वाली बेटियों को सुरक्षित माहौल प्रदान करना खेल मंत्रालय की जिम्मेदारी है ताकि महिला खिलाड़ियों के भीतर निडर व तनावमुक्त होकर खेलने का आत्मविश्वास जगे। श्री गोयल यह तो मानते हैं कि महिला खिलाड़ियों को घर-परिवार और समाज में पुरुष खिलाड़ियों के मुकाबले अधिक परेशानी का सामना करना पड़ता है लेकिन उनके लाख कहने के बाद भी किसी महिला खिलाड़ी तथा प्रशिक्षक को न्याय मिलना तो दूर उसकी सुध तक नहीं ली जा रही है। भारत में खिलाड़ियों की दुर्दशा की मुख्य वजह खेल मंत्रियों और सरकारी खेलतंत्र का घोषणा-वीर होना ही है। आजादी के 70 साल बाद भी देश में खेलों और खिलाड़ियों के उत्थान की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई है। खेलों के नाम पर अरबों रुपये प्रतिवर्ष खर्च हो रहे हैं लेकिन खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों को उसका लाभ शायद ही कभी मिला हो। हमारे देश में खेल प्रतिभाओं के साथ ही अनुभवी खेल प्रशिक्षकों की कमी नहीं है लेकिन घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध की तर्ज पर भारत सरकार विदेशी प्रशिक्षकों पर धन वर्षा कर अपनी पीठ ठोक रही है और भारतीय प्रशिक्षक घुट-घुट कर मरने को मजबूर हैं। पूनम तिवारी जैसी कर्मयोगियों को ही यदि न्यान न मिला तो आखिर कोई भी अभिभावक अपनी बेटियों को खिलाड़ी क्यों बनाना चाहेगा।

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