दुनिया में दिलाई मुल्क
को शोहरत
श्रीप्रकाश
शुक्ला
उड़न परी पी.टी. ऊषा एक जानी-मानी एथलीट ही नहीं बल्कि हजारों भारतीय खिलाड़ी बेटियों
की आदर्श भी हैं। पी.टी. ऊषा का नाम जुबान पर आते ही एक दुबली-पतली लड़की का चेहरा
सामने आ जाता है। जो किसी भी जगह, किसी भी रेस में, किसी के साथ भी दौड़ते हुए पीछे
कम ही दिखाई देती थीं। कई राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में अपने खेल
का लोहा मनवाने वाली पी.टी. ऊषा देश की अकेली ऐसी महिला खिलाड़ी हैं, जिन्होंने
एशियाई तथा ओलम्पिक खेलों में भी ऐतिहासिक गौरव हासिल किया है। एक सैकड़ा से अधिक राष्ट्रीय
और अन्तरराष्ट्रीय पदक जीतकर ऊषा ने जताया कि यदि देश में लड़कियों को पर्याप्त
प्रोत्साहन मिले तो वह भी किसी से कम नहीं हैं। यूं तो हमारा देश जनसंख्या की
दृष्टि से दुनिया के दूसरे स्थान पर विराजमान है लेकिन इस जनसंख्या की कतार में
हजारों लोगों को पीछे छोड़ते हुए कुछ ही ऐसे भारतीय होते हैं जो आगे निकल जाते हैं।
किसी भी क्षेत्र में सबसे पहले आने की कड़ी में वे अपना नाम दर्ज करवाते हैं। जब-जब
इतिहास में किसी भी खिलाड़ी ने कीर्तिमान रचा है या कोई नया रिकॉर्ड बनाया है तब-तब
उसे आम जनता द्वारा कुछ अलग, कुछ हटकर नामों की उपाधि से नवाजा गया है। पी.टी. ऊषा
भी उन्हीं में से एक हैं। पी.टी. ऊषा को उड़न परी, स्वर्ण परी, एशियन स्प्रिंट
क्वीन, पायोली एक्सप्रेस, भारतीय ट्रैक एण्ड फील्ड की रानी आदि नामों से पुकारा
जाता है। 1985 में ऊषा को पद्मश्री
व अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
पी.टी. ऊषा ने अपनी कड़ी मेहनत और लगन से वह स्थान प्राप्त किया जिसकी असली हकदार
थीं। अक्सर गरीब परिवार में पैदा होना इंसान की काबिलियत को मारने के लिए काफी
होता है लेकिन पी.टी. ऊषा के मामले में यह बात मिथ्या साबित हो गई। पी.टी. ऊषा ने
अपनी काबिलियत और मेहनत से यह साबित किया कि यदि इंसान में हौसला और कुछ कर गुजरने
की इच्छाशक्ति हो तो कोई काम असम्भव नहीं। पी.टी. ऊषा ने हर मुश्किल और मुसीबत को
ठेंगा दिखाते हुए संकल्प लिया कि वह आगे बढ़ेंगी और कुछ करके ही रहेंगी। पी.टी. ऊषा
आज देश की हर दूसरी महिला खिलाड़ी की प्रेरणास्रोत हैं। पी.टी. ऊषा जब ट्रैक में
सबसे तेज धाविका के रूप में आगे बढ़ रही थीं, जिस समय लोगों ने उन्हें पहचानना शुरू
किया था उस समय भारतीय महिलाओं की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। पी.टी. ऊषा ने खेल के
क्षेत्र में जो कुछ हासिल किया वह आसान बात नहीं थी।
पी.टी. ऊषा का जन्म केरल के कालीकट (कोझिकोड) जिले के पायोली गांव में 27 जून, 1964 को हुआ था। ऊषा को पहला नाम पायोली तेवारापराम्पिल यानी कि
उनके गाँव से मिला था। दक्षिण भारत में पारम्परिक नामकरण प्रणाली प्रचलित है और
वहाँ पर हर व्यक्ति का नाम ऐसे ही रखा जाता है। ऊषा के माता व पिता का नाम ई.पी.एम. पैथॉल तथा टी.वी. लक्ष्मी है। ऊषा
अपने बचपन के शुरू के दिनों में बहुत बीमार रहा करती थीं लेकिन स्कूल के शुरू के
दिनों से ही अच्छे एथलीट होने के गुण उनमें दिखाई देने लगे थे। उनके पिता एक छोटे-मोटे
व्यापारी और उनकी माताजी सीधी-साधी गृहणी थीं। पी.टी. ऊषा की शारीरिक बनावट बचपन
से ही एक एथलीट जैसी ही थी। लम्बी-लम्बी टांगें और फुर्ती से काम करने का दम उन्हें
बिरासत में मिला है। घर के किसी भी कार्य को वे एकदम फुर्ती से करती थीं और हर वक्त
भागती-दौड़ती रहती थीं ऐसे में उनकी एक तरह से कसरत हमेशा होती रहती थी। पी.टी. ऊषा
को लम्बी-लम्बी दीवारें फांदना खूब भाता था। जब केरल में खेल विद्यालय खोला गया तब
उनके मामाजी ने सलाह दी कि तू वैसे भी दिन भर यहां-वहां भागती रहती है सो तू क्यों
खेल प्रतियोगिताओं में भाग नहीं लेती। मामा की बात मानकर पी.टी. ऊषा ने खेलों में
रुचि दिखानी शुरू की। पी.टी. ऊषा को असल प्रेरणा अगर किसी घटना ने दी तो वह तब जब
वे केवल चौथी कक्षा में पढ़ती थीं और उनके व्यायाम टीचर ने उन्हें सातवीं कक्षा की
चैम्पियन छात्रा के साथ रेस लगाने को कहा। पी.टी. ऊषा जैसे ही उस रेस में जीतीं
उनका आत्मविश्वास सातवें आसमान पर पहुंच गया। पी.टी. ऊषा एक गरीब परिवार में पैदा
हुई थीं, इसी कारण उनका पालन-पोषण सही तरीके से नहीं हो पाया और उनकी तबियत खराब
रहती थी। बुरा वक्त पी.टी. ऊषा के साथ ज्यादा समय तक नहीं रहा क्योंकि बहुत छोटी सी
उम्र में ही उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाना शुरू कर दिया था।
1976 यानी जब पी.टी. ऊषा केवल 12 साल की थीं तब केरल सरकार द्वारा वहां एक खेल
विद्यालय खोला गया। पी.टी. ऊषा की प्रतिभा को देखते हुए छोटी सी उम्र में ही उन्हें
जिले का प्रतिनिधि चुना गया। केरल खेल परिषद द्वारा वहां हर किसी प्रतिभावान खिलाड़ी
छात्र-छात्राओं को 250 रुपये हर महीने
की छात्रवृत्ति के साथ-साथ फल, अण्डे, सूप आदि के रूप में पोषण से भरा आहार दिया
जाता था। पी.टी. ऊषा ने 1976 में कन्नौर खेल छात्रावास में प्रवेश लिया। 1979 में उन्हें
राष्ट्रीय विद्यालय खेलों में भाग लेने का मौका मिला। वहां ओ.एम. नाम्बियार की नजर
पी.टी. ऊषा पर पड़ी। उन्हें लगा कि यह लड़की और लड़कियों के मुकाबले कुछ हटकर है।
वैसे भी प्रतिभावान लोग अपनी एक अलग जगह बना ही लेते हैं। नाम्बियार ने पी.टी. ऊषा
को प्रशिक्षण देने का निश्चय किया।
ओलम्पिक्स में पी.टी. ऊषा की शुरुआत 1980 के मास्को ओलम्पिक से हुई थी लेकिन पहले
ओलम्पिक में अच्छा प्रदर्शन नहीं दिखा पाईं और सबको निराश किया। किसी ने एकदम सही कहा
है कि निराशा के पीछे ही आशा छिपी होती है। यदि आपके मन में किसी चीज को पाने की सच्ची
अभिलाषा हो तो उसे जरूर हासिल किया जा सकता है। 1980 की निराशा से उबर चुकी पी.टी.
ऊषा ने 1982 के एशियाई खेलों में अपने करिश्माई प्रदर्शन से सबको हैरत में डाल
दिया। 1982 के एशियाई खेलों में ऊषा ने 100 और 200 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीते। राष्ट्रीय
स्तर पर ऊषा ने कई बार अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को दोहराने के साथ 1984 के लांस एंजिल्स
ओलम्पिक खेलों में 400 मीटर हर्डल में चौथा स्थान हासिल किया। यह गौरव पाने वाली पी.टी.
ऊषा भारत की पहली महिला धावक बनीं। कोई विश्वास नहीं कर पा रहा था कि भारत की धावक
भी ओलम्पिक खेलों का सेमीफाइनल जीतकर अन्तिम दौर में पहुँच सकती है। वजह इससे पहले
किसी भी भारतीय महिला ने ऐसा करिश्मा किया ही नहीं था। पी.टी. ऊषा ने जकार्ता में
हुई एशियन चैम्पियनशिप में भी स्वर्णिम सफलता हासिल कर यह जताया कि आखिर वह किस
फौलाद की बनी हैं। पी.टी. ऊषा जकार्ता एशियन चैम्पियनशिप की ट्रैक एण्ड फील्ड
स्पर्धाओं में पांच स्वर्ण एवं एक रजत पदक जीतकर एशिया की सर्वश्रेष्ठ धावक बनीं।
कहते हैं कि जब व्यक्ति आसमान की ऊंचाइयों को छू रहा होता है तब उसके रास्ते में
कई लोग उसके मित्र बनते हैं और कई सारे खुद ही उसके शत्रु बनना पसंद करते हैं क्योंकि
ईर्ष्या करना उनकी गन्दी और घटिया आदत का मापदण्ड होता है। लांस एंजिल्स ओलम्पिक
में ऊषा के शानदार एवं इतिहास रच देने वाले प्रदर्शन के बाद विश्वभर के खेल
विशेषज्ञ चकित रह गए। 1982 के नई दिल्ली
एशियाड में उन्हें 100 मीटर व 200 मीटर दौड़ में रजत पदक मिले लेकिन एक वर्ष बाद कुवैत में
एशियाई ट्रैक और फील्ड प्रतियोगिता में एक नए एशियाई कीर्तिमान के साथ उन्होंने 400 मीटर में स्वर्ण पदक जीता।
1983 से 1989 के बीच में ऊषा ने ए.टी.एफ. खेलों में 13 स्वर्ण पदक जीते। 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक की 400 मीटर बाधा दौड़ के सेमीफाइनल
में वह पहले स्थान पर थीं लेकिन फाइनल में
पीछे रह गईं। मिल्खा सिंह के साथ जो 1960 में हुआ वैसा ही कुछ 1984 में पी.टी. ऊषा के साथ हुआ। ऊषा सेकेण्ड के सौवें
हिस्से से कांस्य पदक गंवा बैठीं। 1986 में सियोल में हुए दसवें एशियाई खेलों में पी.टी.
ऊषा ने चार स्वर्ण और एक रजत पदक जीता।
उन्होंने जितनी भी दौड़ों में भाग लिया उनमें नए एशियाई खेल कीर्तिमान स्थापित
किए। 1985 में जकार्ता में हुई एशियाई दौड-कूद प्रतियोगिता में भी उन्होंने पाँच स्वर्ण
पदक जीते। एक ही अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में छह स्वर्ण पदक जीतना भी एक
कीर्तिमान है। ऊषा ने अपने खेलजीवन में 102 अंतरराष्ट्रीय पदक जीते।
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