Tuesday 1 August 2017

कमाल की कुंजारानी


भारोत्तोलन में देश के लिए जीते सबसे अधिक पदक
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारोत्तोलन ऐसा खेल है जिसमें न तो रोमांच है और न ही पैसा। इससे जुड़े खिलाड़ी शोहरत के मामले में भी दूसरे खेलों के खिलाड़ियों के सामने कहीं नहीं टिकते। यह तो गनीमत है कि यह खेल सरकारी उपेक्षा से बचा हुआ है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर हासिल उपलब्धियों को बाकायदा सरकारी मान्यता मिल रही है तो खिलाड़ियों को भी उपेक्षा का दंश नहीं झेलना पड़ता। पिछले कुछ वर्षों में पुरुषों की तुलना में भारतीय महिलाओं ने इस खेल में ज्यादा नाम कमाया है। हालांकि इस खेल को डोपिंग का भूत हमेशा डराता रहता है। कर्णम मल्लेश्वरी ने सिडनी ओलम्पिक में कांस्य पदक जीतकर 48 साल से ओलम्पिक में चले आ रहे पदकों के अकाल को समाप्त किया था। मल्लेश्वरी की इस सफलता ने उन्हें मालामाल कर दिया। मल्लेश्वरी के अलावा भी एक फौलादी महिला ऐसी है जिसने बेशक ओलम्पिक में कोई पदक न जीता हो लेकिन वह हर अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में देश के लिए पदक आस के रूप में उतरती रही है। दो दशक के अपने वेटलिफ्टिंग करियर में इस महिला भारोत्तोलक ने ढेरों पदक जीतकर मुल्क का गौरव बढ़ाया है। यह आयरन लेडी कोई और नहीं मणिपुर की नामीराक्पम कुंजारानी देवी हैं। एन. कुंजारानी 1990 में अर्जुन पुरस्कार प्राप्त करने वाली देश की पहली महिला भारोत्तोलक बनीं तो कुंजा को 1996 में राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार पाने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी होने का गौरव भी मिला। खेलों में शानदार प्रदर्शन के लिए कुंजारानी को 1996 में ही के.के. बिरला खेल अवार्ड से भी नवाजा गया। 2011 में कुंजारानी को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के हाथों पद्मश्री अवार्ड भी प्रदान किया गया।
कुंजारानी का पूरा नाम नामीराक्पम कुंजारानी देवी है। कुंजारानी एक ऐसी अन्तरराष्ट्रीय वेटलिफ्टर हैं जिन्होंने जिस प्रतियोगिता में भाग लिया अधिकांश में पदक अवश्य जीता। 1995 में नार्वे में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में वह भारत की प्रथम स्वर्ण पदक विजेता बनी थीं। कुंजारानी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर लगभग 60 से अधिक पदक प्राप्त करने वाली भारत की एकमात्र वेटलिफ्टर हैं। सेण्ट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स में असिस्टेंट कमाण्डेंट जैसे महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत इस महिला के हाथों में बला की ताकत है। एन. कुंजारानी का कद भले ही छोटा रहा लेकिन लक्ष्य हमेशा ऊंचे रहे। कुंजा में सफलता की भूख हमेशा बरकरार रही। वेटलिफ्टिंग ऐसी प्रतियोगिता है जिसमें खिलाड़ी के दमखम की परीक्षा होती है। यह तो मानना ही होगा कि खिलाड़ी जितना युवा होगा, उसमें जीत की सम्भावना उतनी ही अधिक होगी। ढलती उम्र के साथ मांसपेशियों में शिथिलता आती है और इससे वेटलिफ्टर का प्रदर्शन प्रभावित होता है लेकिन कुंजारानी इसका अपवाद रहीं। 38 साल की उम्र में किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में पदक जीतना तो कल्पना से परे लगता है लेकिन इस भारतीय वेटलिफ्टर ने इसे झुठलाते हुए साबित किया कि सफलता में अनुभव भी बड़ी भूमिका निभा सकता है।
पहली मार्च, 1968 को केरंग मचाई लेकेइ (इंफाल, मणिपुर) में जन्मी कुंजारानी ने सिंदाम सिनशांग रेजीमेंट हाईस्कूल में शिक्षा के समय से ही खेलों में दिलचस्पी दिखाई। महाराजा बोधा चंद्रा कालेज से स्नातक होने तक वेटलिफ्टिंग कुंजारानी देवी का पसंदीदा खेल बन गया था। सेण्ट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स में भर्ती के साथ ही पुलिस खेलों में उनकी धाक जमने लगी और आगे चलकर वह 1996 से 1998 तक भारतीय पुलिस की कप्तान भी रहीं। 1985 में राष्ट्रीय चैम्पियनशिप से कुंजारानी ने पदक बटोरने का सिलसिला शुरू किया। 44 किलोग्राम, 46 किलोग्राम और फिर 48 किलोग्राम में कुंजा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी श्रेष्ठता साबित करती रहीं। 1987 में त्रिवेन्द्रम में हुई राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में कुंजारानी ने दो नए राष्ट्रीय रिकार्ड स्थापित किए। 1994 में पुणे चैम्पियनशिप में जब कुंजा ने भारवर्ग बदला तो भी उन्हें स्वर्ण पदक जीतने से कोई नहीं रोक पाया। चार साल बाद मणिपुर में हुई चैम्पियनशिप में उन्होंने फिर वजन में बदलाव किया तब उन्हें रजत पदक ही मिल पाया।
अपने वजन में देश की प्रतिभाशाली वेटलिफ्टर होने के चलते कुंजारानी को राष्ट्रीय टीम में जगह मिलने लगी। 1989 में मैनचेस्टर में जब वे पहली बार विश्व चैम्पियनशिप में शिरकत करने गईं तो तीन रजत पदकों के साथ उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर अपनी ताकत का डंका बजाया। इसके बाद कुंजा ने लगातार कई विश्व चैम्पियनशिप में पदक जीते पर उन्हें कभी स्वर्णिम सफलता नहीं मिल पाई। अपने पहले दो एशियाई खेलों 1990 में बीजिंग और फिर चार साल बाद हिरोशिमा में कुंजारानी के हाथ सिर्फ कांसे के तमगे लगे। बैंकाक एशियाई खेलों (1998) में उम्मीदें बुलंदी पर थीं लेकिन कुंजा वहां से खाली हाथ लौटीं। हालांकि एशियाई वेटलिफ्टिंग चैम्पियनशिप में उनका प्रदर्शन बेहतर रहा। 1989 में एक रजत और दो कांस्य पदकों के शुरुआत करने वाली कुंजारानी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1995 में था जब दक्षिण कोरिया में उन्होंने 46 किलोग्राम भारवर्ग में दो स्वर्ण और एक कांस्य पदक जीता। यह वह दौर था जब वे अपने भारवर्ग में विश्व नम्बर एक थीं। अगस्त 2002 के मैनचेस्टर में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में कुंजारानी भारत की दिग्गज भारोत्तोलक के रूप मेँ सुर्खियों में छाई रहीं जब उन्होंने तीन स्वर्ण पदक जीते। उसके पूर्व 2001 में कुंजारानी पर डोपिंग का आरोप लगा और उन्हें छह माह के लिए खेलों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया लेकिन मैनचेस्टर खेलों में कुंजारानी ने अपनी योग्यता साबित कर दिखाई और डोपिंग के आरोपों को धो डाला। मार्च 2006 में हुए मेलबोर्न राष्ट्रमंडल खेलों में पुनः कुंजारानी ने शानदार प्रदर्शन किया और क्लीन एण्ड जर्क में नए रिकार्ड के साथ महिला 48 किलो वर्ग का स्वर्ण जीतकर भारत को 18वें राष्ट्रमंडल खेलों में पहला स्वर्ण पदक जिताया। इस वर्ष हर वर्ग में एक स्वर्ण रखा गया था जिसे कुंजारानी ने जीत लिया। उन्होंने कुल 166 किलो वजन उठाकर खिताब जीता। 38 वर्ष की उम्र में कुंजारानी ने स्नैच में 72 किलो और क्लीन एण्ड जर्क में 94 किलो वजन उठाया और नया रिकार्ड कायम किया। हालांकि उनका रिकार्ड 167 किलो (स्नैच में 75 किलो) था लेकिन अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन न करने के बावजूद रिकार्ड बनाने में सफल रहीं।  
वह अपने पुराने दिनों की याद ताजा करते हुए अक्सर बताती हैं कि जब मैंने भारोत्तोलन शुरू किया तब मणिपुर में लोग मुझ पर ताने कसते थे। मेरा मजाक उड़ाते थे लेकिन मेरा इरादा पक्का था कि मुझे अपना अलग मुकाम बनाना है और देश के लिए अन्तरराष्ट्रीय खेल मंच पर गौरव अर्जित करना है। कुंजा ने जब वेटलिफ्टिंग से नाता जोड़ा तो उन्हें अपने रिश्तेदारों और इम्फाल के अड़ोसी-पड़ोसियों से कटु टिप्पणियां सुनने को मिलीं। लोग कहते- लड़की है और लड़कों का खेल खेलती है। ये तो मर जाएगी। ऐसी टिप्पणी सुनकर कुंजारानी का मन और अधिक कड़ी मेहनत करने के लिए उत्साहित हो उठता था। उनके अंदर अपने देश को विश्व स्तर पर ख्याति दिलाने की प्रेरणा और भी जीवंत हो उठती थी।
कुंजारानी यदि भारोत्तोलक न होतीं तो हॉकी या फुटबाल की खिलाड़ी अवश्य होतीं। वह बचपन में इन दोनों ही खेलों को खेलती थीं लेकिन जब थोड़ी बड़ी हुईं तो उन्हें अहसास हुआ कि ये दोनों तो टीम खेल हैं और यदि इनके बजाय वह व्यक्तिगत स्पर्धा वाले खेल खेलें तो ज्यादा अच्छा रहेगा क्योंकि व्यक्तिगत स्पर्धा में आप अपनी मेहनत और लगन से सफलता का मुकाम हासिल कर सकते हैं। अतः उन्होंने वेटलिफ्टिंग को अपना खेल चुना। भारत की इस लौह महिला कुंजारानी की आदर्श खिलाड़ी एथलीट पी.टी. ऊषा रही हैं। पी.टी. ऊषा ने अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अनेकों पदक जीते इसलिए कुंजारानी उन्हीं से प्रभावित रहीं। कुंजारानी की प्रतिभा निखारने में बेलारूस के प्रशिक्षक लियोनिद तारानेंको की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कुंजारानी का स्वयं भी यही मानना है। वह बेबाकी से कहती हैं कि भारोत्तोलन में मैंने जो कुछ पाया है, वह तारानेंको की ही देन है। कुंजारानी को भार उठाते समय देखना वाकई आश्चर्यजनक रहता था। यूं प्रतीत होता था कि वह कोई वजन न उठाकर गुड्डे-गुड़िया उठा रही हों। वेटलिफ्टिंग से जुड़े भारतीय व विदेशी महिला व पुरुष प्रशिक्षक कुंजा का उत्साह देखकर दांतों तले उंगली दबाते थे। उनके सहयोगी तक यह कहते थे कि कुंजा तो मशीन है, उसे थकान नहीं होती, दर्द नहीं होता बस मशीन की तरह चलती जाती है। प्रतिभा कुमारी ने तो अपनी दीदी के बारे में यह तक कह डाला कि वे तो मानव जाति की ही नहीं लगतीं कभी थकती ही नहीं। बढ़ती उम्र के बावजूद कुंजारानी देश की उदीयमान भारोत्तोलकों के लिए ऐसा आदर्श हैं जिनके जज्बे की बराबरी करना हर किसी के बस की बात नहीं। इसीलिए कुंजारानी को भारतीय भारोत्तोलन की ग्रांड ओल्ड लेडी कहा जाता है। अन्तरराष्ट्रीय भारोत्तोलन संघ ने कुंजारानी को बीसवीं शताब्दी की एक श्रेष्ठतम भारोत्तोलक घोषित किया था, जोकि किसी भारतीय महिला खिलाड़ी के लिए बहुत बड़ी बात है।


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