Friday, 9 June 2017

शिक्षा की साख पर सवाल

श्रीप्रकाश शुक्ला
हम विश्व गुरु हैं। हमारे महापुरुषों ने दुनिया को जीवन जीने की कला सिखाई है। भारतीय संस्कृति का देश-दुनिया में अपना अलग महत्व है। किसी नौनिहाल की प्रथम पाठशाला उसका अपना घर और माता-पिता उसके प्रथम गुरु होते हैं। हम अपने बचपन में शिक्षा का पहला पाठ अपनी माँ से ही सीखते हैं। अफसोस आज भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर संदेह के बादल मंडराने लगे हैं। हमारी शिक्षा और संस्कार ही अब प्रतिप्रश्न करते दिख रहे हैं। देश की प्राथमिक शिक्षा मध्याह्न भोजन तक सिमट कर रह गई है तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारे देश का सौ शीर्ष देशों में भी शुमार नहीं है। कहने को हमारी हुकूमतें घर-घर शिक्षा की अलख जगा रही हैं लेकिन बात बनने की बजाय बिगड़ती ही जा रही है। हाल ही बिहार के 12वीं के परीक्षा परिणामों से निकला स्याह सच पूरे देश के सामने प्रश्न बन चुका है। टापर गणेश को लेकर सारे देश में गणेश वंदना हो रही है। आखिर क्यूं हम शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने की बजाय पीछे लौट रहे हैं।
कालांतर में हमारी शिक्षा प्रणाली को महंगा और कठिन माना जाता था। गरीब के बच्चे 12वीं कक्षा के बाद उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते थे। समाज में लोगों के बीच बहुत बड़ा अन्तर और असमानता थी। उच्च जाति के लोग तो अच्छी शिक्षा प्राप्त कर लेते थे लेकिन निम्न जाति के लोग स्कूल या कॉलेज भी नहीं जा पाते थे। अब शिक्षा की पूरी प्रक्रिया में परिवर्तन आया है। कोई किसी भी उम्र में दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से न केवल साक्षर बन सकता है बल्कि वह अपना करियर भी संवार सकता है। भारत सरकार ने शिक्षा प्रणाली को सुगम और सरल बनाने के बहुत से नियम और कानून बनाए हैं ताकि पिछड़े क्षेत्रों, गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों को भी समान शिक्षा और सफलता प्राप्त करने के अवसर मिल सकें। शिक्षित व्यक्ति देश का मजबूत आधार स्तम्भ होता है। शिक्षा से ही जीवन, समाज और राष्ट्र का समुन्नत विकास सम्भव है।
देखा जाए तो अतीत में उच्च शिक्षा के लिए नालंदा देश-देशांतर में विख्यात रहा है। बिहार अपने इस गौरवशाली अतीत का बखान बड़ी शान से करता है लेकिन उसी बिहार में स्कूली शिक्षा का स्तर कहां से कहां पहुंच गया है इसका अंदाजा दो साल के परीक्षा परिणामों से सहज ही लगाया जा सकता है। पिछले वर्ष यहां की टापर छात्रा अपने विषयों के सही नाम तक नहीं बता पाई थी तो इस साल के टापर गणेश का मजाक भी देश भर में उड़ रहा है। बिहार सरकार की सख्ती से परीक्षा में ऐसी गड़बड़ी करने वालों और करवाने वालों को सजा का पात्र बनना पड़ा जिसमें वह छात्रा और गणेश भी शामिल है। परीक्षाओं में नकल और उत्तर-पुस्तिकाओं की जांच में गड़बड़ी कई राज्यों का दस्तूर सा बन गई है। इस मामले में उत्तर प्रदेश और बिहार लगातार बदनामी का दंश झेल रहे हैं। इस बार भाजपाशासित उत्तर प्रदेश में नकल पर प्रतिबंध लगते ही लाखों परीक्षार्थियों ने परीक्षा देने से तौबा कर ली। बिहार सरकार ने भी पिछले साल से सबक लेते हुए सख्ती बरती लेकिन जो नतीजे आए हैं वे चौंकाते हैं, सवाल खड़े करते हैं कि आखिर पढ़ाई का स्तर क्या है और इन बच्चों का भविष्य क्या होगा।
बिहार शिक्षा बोर्ड ने पिछले साल के टापर घोटाले के दाग को धोने के लिए इस बार ऐसी सख्ती अपनाई कि 64 प्रतिशत बच्चे अनुत्तीर्ण हो गये। इस साल बिहार में इण्टर आर्ट्स, साइंस और कॉमर्स की परीक्षा में 12 लाख 40 हजार 168 परीक्षार्थी शामिल हुए थे जिनमें से सात लाख 54 हजार 622 छात्र-छात्राएं फेल हो गए। निराशाजनक परीक्षा परिणाम के लिए परीक्षार्थियों ने मूल्यांकन प्रक्रिया को जिम्मेदार ठहराया है तो अभिभावकों का आरोप है कि कॉपी की जांच ठेके पर बहाल ऐसे शिक्षकों से कराई गई जिनकी योग्यता अपने आप में संदिग्ध है। जबकि बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष आनंद किशोर दावा करते हैं कि परीक्षा के दौरान सख्ती और बार कोडिंग की वजह से यह रिजल्ट आया है। परीक्षा में कड़ाई और निष्पक्षता का होना सही है लेकिन क्या इसके पहले विद्यार्थियों को इस तरह पढ़ाना जरूरी नहीं है कि वे कठिन से कठिन परीक्षा के लिए खुद को तैयार कर सकें। नकल जैसे हथकंडे तभी अपनाए जाते हैं जब स्कूलों में ठीक से पढ़ाई न हो। बिहार के परीक्षा परिणाम यह साबित कर रहे हैं कि वहां पढ़ाई के स्तर में सुधार लाने की सख्त आवश्यकता है। इसके लिए केवल सरकार नहीं बल्कि अभिभावकों और छात्रों को भी अपने रवैये और विचार में बदलाव लाना होगा। फिलहाल अनुत्तीर्ण छात्रों को मानसिक तौर पर सम्बल देना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है।
स्कूली शिक्षा व्यवस्था की बदहाली सिर्फ बिहार और उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है। भारत के अधिकतर राज्यों में शिक्षा का बुरा हाल है। समस्या यह है कि हमारा शिक्षा तंत्र इस कमजोरी को स्वीकारने की बजाय लीपापोती में रुचि लेता है। सफलता का वर्णन जहां बढ़ा-चढ़ाकर होता है वहीं असफलता को नजरंदाज किया जाता है। परीक्षा परिणाम हर साल सरकार और समाज को आईना दिखा रहे हैं लेकिन हम न सुधरने की मानों कसम खा चुके हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार की ही तरह, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में भी सरकारी स्कूलों की शैक्षिक स्थिति अच्छी नहीं है। छत्तीसगढ़ में इस बार इसकी सूरत बदलने के लिए एक नया आदेश लागू किया गया है। इस बार जब स्कूल खुलेंगे तो सरकारी प्राइमरी स्कूलों में बच्चों के उपयोग के लिए दर्पण, कंघी और नेलकटर की व्यवस्था की जाएगी ताकि बच्चे आते ही अपना अवलोकन कर स्वच्छ व व्यवस्थित रूप से स्कूल आने की कोशिश करें। इस सम्बन्ध में स्कूल शिक्षा विभाग के सचिव विकासशील ने सभी जिला शिक्षा अधिकारियों को आदेश जारी किए हैं, साथ ही यह भी कहा है कि असेम्बली में बच्चों को यह जानकारी दी जाए कि दर्पण के उपयोग से बच्चों को किस तरह स्वच्छ रहने की प्रेरणा मिलती है। सभी सरकारी स्कूलों में हमारे आदणीय गुरुजन शीर्षक के साथ स्कूलों में कार्यरत शिक्षकों का संक्षिप्त परिचय एवं उपलब्धियों के विवरण सहित फोटोग्राफ लगाने को कहा गया है। इस आदेश में यह भी कहा गया है कि सभी सरकारी स्कूलों में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के फोटो लगाए जाएं।

बच्चे स्वच्छता का महत्व समझें और अच्छे से तैयार होकर स्कूल आएं इसमें किसी को क्या आपत्ति होगी लेकिन प्रशासन को यह भी देखना चाहिए कि जो बच्चे बिखरे बालों, बढ़े नाखूनों और मैले-कुचैले कपड़ों में स्कूल पहुंचते हैं, उनकी पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है। जिन परिवारों को रोजगार, भोजन, इलाज आदि के लिए हर दिन संघर्ष करना पड़ता है उनके लिए प्राथमिकता में पौष्टिक भोजन, दवाइयां, रहने के लिए हवादार मकान होगा या आईना या नेलकटर। स्कूली पाठ्यक्रम में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की फोटो की क्या आवश्यकता है, अगर इनके बारे में जानकारी देनी ही है तो उसे सामान्य ज्ञान अथवा राजनीति विज्ञान विषय के तहत दी जा सकती है। स्कूली पाठ्यक्रम के जरिए व्यक्ति, राजनीतिक दल या विचारधारा का प्रसार सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं अन्य राज्यों में भी होता रहा है और यह चलन बढ़ता ही जा रहा है, जिसे तत्काल रोका जाना चाहिए। दरअसल हमारी हुकूमतों को इस बात पर गौर करना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि निजी स्कूल-कालेजों का परीक्षा परिणाम सरकारी स्कूल-कालेजों से क्यों बेहतर है। हम शिक्षकों की शैक्षिक कार्यों से इतर सेवाएं क्यों लेते हैं। देश में शिक्षा का स्तर सुधारना है तो सरकारों को प्राथमिक स्तर से ही व्यवस्थाएं चाक-चौबंद करनी होंगी। कोशिश हो तेली का काम तमोली से न कराया जाए। 

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