कुछ यूं सिखाई पहलवानी
साक्षी मलिक ने जिस मेहनत और लगन से दुनिया में नाम कमाया है, वह एक शख्स की देन है। इन्होंने ही साक्षी मलिक को ओलम्पिक मेडलिस्ट बनाया। हम बात कर रहे हैं ओलम्पियन पहलवान साक्षी मलिक के कोच ईश्वर सिंह दहिया की। उनके जीवन में कुश्ती बचपन में ही शामिल हो गई और पूरा जीवन कुश्ती को समर्पित कर दिया। वह खुद तो पहलवान बने ही, देश को ओलम्पिक मेडलिस्ट साक्षी मलिक समेत कई पहलवान और कोच दिए। उनकी इस राह में मुश्किलें आईं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनके सामने सबसे बड़ी समस्या तब आई, जब उन्होंने बेटियों को कुश्ती में आगे लाने का बीड़ा उठाया। तब लोगों के ताने सुनने को मिले, लेकिन उन्होंने बेटियों को कुश्ती के गुर सिखाने नहीं छोड़े और लोगों को समझाकर उनका नजरिया बदला। उनकी मेहनत रंग लाई और रोहतक में महिला पहलवानों की फौज तैयार हो गई। मूल रूप से सोनीपत जिले के सिसाना गांव के रहने वाले दहिया साल 1976-1980 तक आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी रेसलिंग चैम्पियन रहे हैं। जूनियर नेशनल में गोल्ड तो सीनियर नेशनल में कांस्य जीतने वाले ईश्वर दहिया को एचएयू में बतौर प्रोफेसर की नौकरी मिल गई, लेकिन उन्होंने कुश्ती कोच की राह चुनी। वह विदेश में जाकर मेडल जीतने के सपने को शिष्यों के सहारे पूरा करना चाहते थे।
दहिया साल 1983 में खेल विभाग में कुश्ती कोच बने। साल 2003 में अखाड़े में पहली बार बेटियों को कुश्ती सिखाने की तैयारी की। इनमें ओलम्पिक मेडलिस्ट साक्षी मलिक के साथ ही कामनवेल्थ में मेडल जीतने वाली सुमन कुंडू समेत कई बेटियां शामिल थीं। उस समय ईश्वर सिंह दहिया को लोगों के ताने भी सुनने पड़े कि बेटियों को कुश्ती में उतारकर समाज के खिलाफ राह पकड़ी है। लेकिन ईश्वर सिंह ने उनको दांवपेंच सिखाने बंद नहीं किए, बल्कि लोगों की सोच बदलने के लिए उनको समझाया।
इसके बाद तो रोहतक के सर छोटूराम स्टेडियम में बेटियों की कुश्ती सीखने के लिए भरमार हो गई। अब कई लड़के और लड़कियां यहां से कुश्ती के दांव-पेंच सीखकर नेशनल और इंटरनेशनल स्तर पर मेडल जीत रहे हैं।
ईश्वर सिंह दहिया साल 2014 में जिला खेल अधिकारी के पदक से रिटायर्ड हुए, लेकिन पहलवान तैयार करने का उनका जज्बा कम नहीं हुआ। वह आज भी रोजाना सुबह-शाम स्टेडियम में जाकर पहलवानों को कुश्ती के दांव-पेंच सिखाते हैं। इसके लिए वह कोई शुल्क नहीं लेते हैं।
कुश्ती कोच ईश्वर सिंह दहिया बताते हैं कि पहलवान को पहले सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता था। इसलिए पहलवान को सम्मान दिलाना और लड़कियों को कुश्ती में उतारना, दोनों किसी चुनौती से कम नहीं थे।
जब साल 2003 में कविता और सुनीता आदि पहलवान अखाड़े में आईं तो लोग हंसी उड़ाते थे। लेकिन पहलवानों को सम्मान दिलाया, लड़कियों को अखाड़े में उतारा तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेडल भी दिलवाए। वह कहते हैं कि आज सबसे बड़ी खुशी यही है कि उनकी मेहनत सफल हो गई।
इंटरनेशनल रेसलिंग चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल जीतने वाली कविता, सुनीता, सुमन, साक्षी, सीमा, रितु मलिक, गुड्डी के अलावा दीपक, भीम, मनदीप सभी उनके शिष्य हैं जो कुश्ती में ऊंचाइयां छू चुके हैं या ऊंचाइयां छूने में लगे हैं। जबकि ईश्वर सिंह दहिया का पहलवान तैयार करने का सफर जारी है।
साक्षी मलिक ने जिस मेहनत और लगन से दुनिया में नाम कमाया है, वह एक शख्स की देन है। इन्होंने ही साक्षी मलिक को ओलम्पिक मेडलिस्ट बनाया। हम बात कर रहे हैं ओलम्पियन पहलवान साक्षी मलिक के कोच ईश्वर सिंह दहिया की। उनके जीवन में कुश्ती बचपन में ही शामिल हो गई और पूरा जीवन कुश्ती को समर्पित कर दिया। वह खुद तो पहलवान बने ही, देश को ओलम्पिक मेडलिस्ट साक्षी मलिक समेत कई पहलवान और कोच दिए। उनकी इस राह में मुश्किलें आईं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनके सामने सबसे बड़ी समस्या तब आई, जब उन्होंने बेटियों को कुश्ती में आगे लाने का बीड़ा उठाया। तब लोगों के ताने सुनने को मिले, लेकिन उन्होंने बेटियों को कुश्ती के गुर सिखाने नहीं छोड़े और लोगों को समझाकर उनका नजरिया बदला। उनकी मेहनत रंग लाई और रोहतक में महिला पहलवानों की फौज तैयार हो गई। मूल रूप से सोनीपत जिले के सिसाना गांव के रहने वाले दहिया साल 1976-1980 तक आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी रेसलिंग चैम्पियन रहे हैं। जूनियर नेशनल में गोल्ड तो सीनियर नेशनल में कांस्य जीतने वाले ईश्वर दहिया को एचएयू में बतौर प्रोफेसर की नौकरी मिल गई, लेकिन उन्होंने कुश्ती कोच की राह चुनी। वह विदेश में जाकर मेडल जीतने के सपने को शिष्यों के सहारे पूरा करना चाहते थे।
दहिया साल 1983 में खेल विभाग में कुश्ती कोच बने। साल 2003 में अखाड़े में पहली बार बेटियों को कुश्ती सिखाने की तैयारी की। इनमें ओलम्पिक मेडलिस्ट साक्षी मलिक के साथ ही कामनवेल्थ में मेडल जीतने वाली सुमन कुंडू समेत कई बेटियां शामिल थीं। उस समय ईश्वर सिंह दहिया को लोगों के ताने भी सुनने पड़े कि बेटियों को कुश्ती में उतारकर समाज के खिलाफ राह पकड़ी है। लेकिन ईश्वर सिंह ने उनको दांवपेंच सिखाने बंद नहीं किए, बल्कि लोगों की सोच बदलने के लिए उनको समझाया।
इसके बाद तो रोहतक के सर छोटूराम स्टेडियम में बेटियों की कुश्ती सीखने के लिए भरमार हो गई। अब कई लड़के और लड़कियां यहां से कुश्ती के दांव-पेंच सीखकर नेशनल और इंटरनेशनल स्तर पर मेडल जीत रहे हैं।
ईश्वर सिंह दहिया साल 2014 में जिला खेल अधिकारी के पदक से रिटायर्ड हुए, लेकिन पहलवान तैयार करने का उनका जज्बा कम नहीं हुआ। वह आज भी रोजाना सुबह-शाम स्टेडियम में जाकर पहलवानों को कुश्ती के दांव-पेंच सिखाते हैं। इसके लिए वह कोई शुल्क नहीं लेते हैं।
कुश्ती कोच ईश्वर सिंह दहिया बताते हैं कि पहलवान को पहले सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता था। इसलिए पहलवान को सम्मान दिलाना और लड़कियों को कुश्ती में उतारना, दोनों किसी चुनौती से कम नहीं थे।
जब साल 2003 में कविता और सुनीता आदि पहलवान अखाड़े में आईं तो लोग हंसी उड़ाते थे। लेकिन पहलवानों को सम्मान दिलाया, लड़कियों को अखाड़े में उतारा तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेडल भी दिलवाए। वह कहते हैं कि आज सबसे बड़ी खुशी यही है कि उनकी मेहनत सफल हो गई।
इंटरनेशनल रेसलिंग चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल जीतने वाली कविता, सुनीता, सुमन, साक्षी, सीमा, रितु मलिक, गुड्डी के अलावा दीपक, भीम, मनदीप सभी उनके शिष्य हैं जो कुश्ती में ऊंचाइयां छू चुके हैं या ऊंचाइयां छूने में लगे हैं। जबकि ईश्वर सिंह दहिया का पहलवान तैयार करने का सफर जारी है।
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