Friday, 9 June 2017

खेतों में काम करती है नेशनल डिस्कस थ्रोवर मनीषा




जीता पदकों का खजाना, नहीं भर पेट खाना

पद्मश्री कृष्णा पूनिया को मानती है अपना आदर्श
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत गांवों का देश है। गांवों में खेल प्रतिभाएं भी हैं लेकिन उन्हें उचित परवरिश और सही मार्गदर्शन न मिलने से वे अपना तथा देश का सपना साकार करने से वंचित रह जाती हैं। उदीयमान डिस्कस थ्रोवर किसान की बेटी मनीषा शर्मा को ही लें उसने भूखे पेट जूनियर नेशनल स्तर पर 15 स्वर्ण, 5 रजत और दो कांस्य पदक उस हरियाणा राज्य की झोली में डाले जिसे खेलों और खिलाड़ियों का सबसे बड़ा पैरोकार माना जाता है। अफसोस हरियाणा सरकार की उपेक्षा के चलते वह आज खेतों में काम करने को मजबूर है। पद्मश्री कृष्णा पूनिया को अपना आदर्श मानने वाली झज्जर जिले के गांव अकेहरी मदनपुर की यह बेटी दुखी मन से कहती है कि सरकार ने आश्वासन तो बहुत दिए लेकिन उसे न नौकरी मिली और न ही भर पेट फूड सप्लीमेंट।
मनीषा के पिता श्री भगवान शर्मा का सपना है कि उनकी बेटियां खेलों में देश का नाम रोशन करें। सिर्फ पांच बीघा जमीन में पत्नी कृष्णा तथा चार बेटियों और एक बेटे का भरण-पोषण उनके लिए आसान बात नहीं है बावजूद इसके वह अलसुबह से ही मनीषा को डिस्कस थ्रो तो मोनिका को हैमर थ्रो का प्रशिक्षण देने के साथ बेटे दीपक को कबड्डी में पारंगत करते हैं। मनीषा जब 14 साल की थी तभी से वह अपने पिता की देख-रेख में डिस्कस थ्रो में देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्णिम सफलता दिलाने का सपना देख रही है। राष्ट्रमण्डल खेलों में भारत की एकमात्र स्वर्ण पदकधारी एथलीट कृष्णा पूनिया ही मनीषा यानि मिसू का आदर्श हैं। मनीषा कहती है कि कृष्णा दीदी ने एथलेटिक्स के क्षेत्र में मुल्क को जो शोहरत दिलाई है उसकी बराबरी करना आसान नहीं है लेकिन मैं प्रयास करना चाहती हूं। हर खिलाड़ी की तरह मेरे भी सपने हैं लेकिन गरीबी और सरकार की उपेक्षा मेरे प्रयासों में हमेशा बाधा बन जाती है।
मनीषा ने हरियाणा के लिए जूनियर स्तर पर 22 तो सीनियर स्तर पर दो नेशनल खेले हैं। जूनियर स्तर पर जीते 15 स्वर्ण, 5 रजत और दो कांस्य पदक मनीषा के प्रतिभाशाली होने का ही सबूत हैं। मनीषा 2013 में रांची में हुई साउथ एशियन चैम्पियनशिप में रजत पदक भी जीत चुकी है। 18 मई, 1995 को श्री भगवान के घर जन्मी मनीषा सीनियर नेशनल में कांस्य पदक जीतने के बाद इस उम्मीद में जी रही है कि उसे सरकार नौकरी देगी और वह उस पैसे को फूड सप्लीमेंट में खर्च कर देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई पदक दिलाएगी। बी.ए. की तालीम हासिल कर रही मनीषा दुखी मन से कहती है कि मेरी बहन मोनिका हैमर थ्रो में न केवल हाथ आजमा रही है बल्कि दो नेशनल में उसने एक स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है। मनीषा अपनी चार बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी है।
मनीषा कहती है कि मैं अपने प्रशिक्षक पिता की खुशी और उनके सपने को साकार करने के लिए खेलना चाहती हूं। मेरा परिवार तंगहाली के दौर से गुजर रहा है। पिताजी चाहते हैं कि मैं देश के लिए खेलूं और दर्जनों मैडल जीतूं लेकिन जब खिलाड़ी को पर्याप्त डाइट ही नहीं मिलेगी तो वह भला देश का मान कैसे बढ़ा सकता है। मैं अपने पिता के साथ खेतों में काम करती हूं ताकि परिवार को दो जून की रोटी मयस्सर हो। मनीषा बताती है कि नेशनल में मैडल जीतने पर मुझे राज्य सरकार की तरफ से कई बार सम्मानित किया गया। सम्मान से कुछ पल के लिए खुशी तो मिली लेकिन उससे पेट नहीं भरा जा सकता। समय रहते यदि हरियाणा सरकार का ध्यान राष्ट्रीय स्तर पर दो दर्जन पदक जीत चुकी मनीषा की तरफ नहीं गया तो उसका आगे खेल पाना मुश्किल होगा।
भारत सरकार 2020 में होने वाले ओलम्पिक खेलों के लिए प्रतिभाएं तलाश रही है जबकि मनीषा जैसी प्रतिभाशाली बेटियों को एक अदद नौकरी और भर पेट भोजन का मलाल है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि यदि एक मामूली किसान अपने प्रशिक्षण और जुनून से देश को सितारा खिलाड़ी दे सकता है तो हमारा खेल तंत्र उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का क्यों नहीं बना सकता। क्या केन्द्र और राज्य सरकार मनीषा और मोनिका जैसी बेटियों का हौसला बढ़ाएगी या फिर किसान की ये बेटियां असमय ही खेलों से नाता तोड़ लेंगी।                  


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