Friday 10 January 2014

भारत रत्न, खिलाड़ी और सियासत

जिन्दा न दें कौरा, मरे उठावें चौरा। मौजूदा दौर में इंसान की अहसानफरामोशी के लिए इससे बड़ा जुमला और कोई दूसरा नहीं हो सकता। जब से केन्द्र सरकार ने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की घोषणा की है तभी से लगभग बिसरा दिये गये कालजयी हॉकी महानायक मेजर ध्यानचंद लोगों की चिरस्मृतियों में पुन: जीवंत हो उठे हैं। लोग हॉकी के पुरोधा दद्दा ध्यानचंद को ही देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न पहले मिले, इसके लिए सुनियोजित तरीके से लाबिंग में जुट गये हैं। यह लाबिंग कोई और नहीं दद्दा के पुत्र अशोक कुमार कर और करवा रहे हैं। दद्दा को देश का सर्वोच्च सम्मान मिलना चाहिए क्योंकि गुलाम भारत में हॉकी की बेमिशाल उपलब्धियां उनके इर्द-गिर्द ही महिमामंडित हुर्इं। कुछ इस तरह जैसे क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर के अभ्युदय से आजाद भारत ने महसूस किया। अब सवाल यह उठता है कि आखिर भारत रत्न सचिन तेंदुलकर और मेजर ध्यानचंद को ही क्यों?
भारतीय सरजमीं हमेशा शूरवीरों के लिए जानी जाती रही है। बात खेलों की करें तो इंसान ही नहीं हर जीव जन्म से ही उछल-कूद प्रारम्भ कर देता है। कुछ इसे जीवन पर्यन्त के लिए आत्मसात कर लेते हैं तो कुछ की प्रतिभा उदरपूर्ति की भेंट चढ़ जाती है। इसे सियासत कहें या कुछ और भारत सरकार ने खिलाड़ियों को भी भारत रत्न देने का डंका पीट दिया है। सरकार का यह निर्णय वोट की फसल काटने के सिवाय कुछ भी नहीं है। सचिन का नाम भी सरकार ने कुछ इसी गरज से सर्वोपरि माना है। चूंकि क्रिकेट हर भारतवंशी की प्राणवायु बन चुकी है लिहाजा सरकार को सचिन सबसे पहले याद आये। खिलाड़ियों को भारत रत्न मिले, इसके सभी हिमायती हैं पर सचिन और ध्यानचंद पर सियासत करने की बजाय भारत सरकार को उन खिलाड़ियों का भी कद्रदान होना चाहिए जिन्होंने मादरेवतन को अपने नायाब प्रदर्शन से हमेशा गौरवान्वित किया। अंतरराष्ट्रीय खेल क्षितिज पर भारतीय हॉकी के नाम आठ ओलम्पिक और एक विश्व खिताब का मदमाता गर्व है तो क्रिकेट में हमने तीन बार दुनिया फतह की है। क्रिकेट और हॉकी टीम खेल हैं लिहाजा इन विश्व खिताबों के लिए कुछेक खिलाड़ियों पर सरकार की मेहरबानी खेलभावना के बिल्कुल खिलाफ है। खेलों के अतीत पर गौर करें तो मुल्क की कोख से कई नायाब सितारे पैदा हुए हैं, जिन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिलना चाहिए।
अशोक कुमार अपने पिता ध्यानचंद की जगह यदि आज अपने चाचा कैप्टन रूप सिंह के लिए लाबिंग कर रहे होते तो शायद खेलजगत उनका शुक्रगुजार होता। दद्दा ध्यानचंद के नाम को अमर रखने के लिए सरकार पहले ही खेल जमात को उनके जन्मदिन को खेल दिवस के रूप में मनाने का तोहफा दे चुकी है, पर जिस खिलाड़ी की तानाशाह हिटलर ने तारीफ की हो, उसे हिन्दुस्तान आखिर कब शाबास कहेगा? भारत सरकार ने 1932 और 1936 की ओलम्पिक चैम्पियन भारतीय टीम के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी कैप्टन रूप सिंह को आज तक किसी सम्मान के काबिल क्यों नहीं समझा? आखिर अचूक स्कोरर, रिंग मास्टर के लिए लोगों की जुबान गूंगी क्यों हो गई? 1932 और 1936 के इन दोनों ओलम्पिक में एक कोख के दो लाल साथ-साथ खेले थे पर रूप सिंह ने बर्लिन में अपने पौरुष का डंका पीटते हुए न सिर्फ सर्वाधिक गोल किये बल्कि जर्मन तानाशाह हिटलर का भी दिल जीत लिया था। यदि दद्दा वाकई तत्कालीन समय में सर्वश्रेष्ठ हॉकी महारथी थे तो 1978 में म्यूनिख में रूप सिंह के नाम की सड़क क्यों बनी? अफसोस जिस खिलाड़ी को आज तक जर्मन याद कर रहा है उसे ही भारत सरकार तो क्या उसका भतीजा भी भूल चुका है।
हॉकी में दद्दा ध्यानचंद, रूप सिंह ही नहीं दर्जनों नायाब खिलाड़ी ऐसे रहे हैं जिनकी कलात्मक हॉकी की दुनिया में जय-जयकार हुई। भारतीय हाकी दिग्गजों में बलबीर सिंह सीनियर का भी शुमार है। 90 बरस के इस नायाब हॉकी योद्धा ने भी भारत की झोली में तीन ओलम्पिक स्वर्ण पदक डाले हैं। बलबीर उस भारतीय टीम के मुख्य प्रशिक्षक और मैनेजर रहे जिसने 1975 में भारत के लिये एकमात्र विश्व कप जीता। वर्ष 1896 से लेकर अब तक सभी खेलों के 16 महानतम ओलम्पियनों में से एक बलबीर को 2012 लंदन ओलम्पिक के दौरान अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने सम्मानित किया था पर भारत सरकार अतीत के इस सितारे को भारत रत्न का हकदार क्यों नहीं मानती? बलबीर के नाम ओलम्पिक पुरुष हॉकी के फाइनल में सर्वाधिक गोल का ओलम्पिक और विश्व रिकॉर्ड है। उन्होंने 1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक में हालैण्ड के खिलाफ भारत की तरफ से किये गये छह में से पांच गोल किये थे। वह मेलबर्न ओलम्पिक (1956) में खिताब जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान भी रहे।
 हॉकी और क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में भारत को गौरवान्वित करने वाले खिलाड़ियों में पहलवान केडी जाधव का नाम भी आज भूल-भुलैया हो चुका है। जाधव ने 1952 हेलसिंकी ओलम्पिक में पहला व्यक्तिगत कांस्य पदक भारत की झोली में डाला था।  देश के ओलम्पिक पदकधारियों में एकमात्र केडी जाधव ही हैं जिन्हें पद्म पुरस्कार नहीं मिला। वर्ष 1996 खेलों के बाद से भारत के लिये व्यक्तिगत ओलम्पिक पदक जीतने वाले सभी खिलाड़ियों को पद्म पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। सम्मान की आस में आखिर जाधव 1984 में  दुनिया को ही अलविदा कर गये। इन खिलाड़ियों के अलावा   अतीत के भारतीय नायाब सितारों में उड़न सिख मिल्खा सिंह, उड़नपरी पीटी ऊषा, सुनील गावस्कर, कपिल देव, राहुल द्रविड़ को भी हम एक सिरे से खारिज नहीं कर सकते। जहां तक दद्दा की बात है भारत सरकार ने पहले ही उनके जन्मदिन को सालाना खेल दिवस के रूप में घोषित किया हुआ है। इसी दिन खिलाड़ियों को शीर्ष खेल सम्मान अर्जुन पुरस्कार और द्रोणाचार्य भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किये जाते हैं। जब खेल मंत्रालय पहले ही भारत रत्न के लिये ध्यानचंद के नाम की सिफारिश कर चुका है तो फिर मुल्क के सर्वोच्च नागरिक सम्मान को लेकर इतनी नौटंकी क्यों? सम्मान पर सियासत करने से बेहतर होगा हमारे पूर्व खिलाड़ी रसातल पर पहुंच चुकी भारतीय हॉकी के लिए कुछ करें।

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