Friday 14 March 2014

आंतरिक सुरक्षा में सेंध

हर हमला कई सवाल छोड़ जाता है। इन सवालों पर कुछ समय के लिए चिन्तन-मनन भी होता है लेकिन समय गुजरते ही सब कुछ ऐसे भुला दिया जाता मानो अब कुछ होगा ही नहीं। हमारे देश के भाग्य विधाता हमेशा चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश और दीगर पड़ोसियों की कारगुजारियों पर उंगली उठाते हैं लेकिन उन्हें अपनी आवाम की सुरक्षा का भान न होना दिनोंदिन परेशानी का सबब बनता जा रहा है। मुल्क की आवाम की सुरक्षा में सुराख की बात करें तो ऐसे अनगिनत वाक्ये हैं जिनमें निर्दोष लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। सोलहवीं लोकसभा के महाकुम्भ से पहले छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जिस तरह हमारे सुरक्षा बलों के साथ खून की होली खेली है उसे देखते हुए लोगों में अनचाहा डर घर कर गया है। राजनीतिज्ञ कुछ भी कहें मुल्क का एक तिहाई हिस्सा फिलवक्त दुर्दांतों की निगहबानी में है तो अन्य हिस्सों के लोग भी सुरक्षा व्यवस्था को लेकर डरे-सहमे से हैं।
सोलहवीं लोकसभा चुनावों में मतदान की पूर्णाहुति से पहले 16 सुरक्षा जवानों की मौत ने एक बार फिर इस खतरे की भयावहता और इससे निपटने की हमारी रणनीतिक खामियों को उजागर कर दिया है। सुकमा जिले में तोंगपाल और जीरम के बीच सड़क निर्माण कार्य को सुरक्षा प्रदान करने के लिए तैनात केन्द्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स और स्थानीय पुलिस के इन जवानों को नक्सलियों ने उस वक्त अपना निशाना बनाया जब वे गश्त पर निकले थे। यह वही क्षेत्र है, जहां पिछले साल नक्सलियों ने कई प्रमुख कांग्रेस नेताओं के साथ खून की होली खेली थी। दक्षिणी बस्तर में ही वर्ष 2010 में नक्सलियों ने केन्द्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स के 76 जवानों को हलाक करने का दुस्साहस दिखाया था। ये तमाम लोमहर्षक घटनाएं हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर सवालियां निशान लगाती हैं। हाल ही हमलावरों ने जिस बर्बरतापूर्ण तरीके से कुल्हाड़ी से सुरक्षा जवानों के हाथ-पैर काटे और शवों के साथ विस्फोटक लगाए यह उनकी दरिन्दगी और हमारी सुरक्षा व्यवस्था की बड़ी चूक का ही नतीजा है।
लोकसभा चुनावों से पहले सरकारी मशनरी मतदाता जागरूकता की अलख जगा रही है तो दूसरी तरफ नक्सली और दीगर विघ्नसंतोषी लोग अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में दहशत फैलाकर मतदाताओं को चुनाव के पुनीत कार्य से दूर रखना चाहते हैं। यह अपराधियों का पहला और अंतिम प्रयास नहीं है बल्कि हर चुनाव से पहले मतदाता को इसी तरह की परीक्षा देनी पड़ती है। फख्र की बात है कि हर बार मुल्क की आवाम ने अपनी दिलेरी और हिम्मत का परिचय देते हुए भारतीय लोकतंत्र को सम्बल प्रदान किया है। मुल्क की आवाम बेशक बार-बार अपने पौरुष का इम्तिहान दे रही हो पर उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी से सरकार पीछे नहीं हट सकती। यह बेहद निराशाजनक है कि नक्सलवाद को बार-बार देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती बताने वाली केन्द्र और राज्य सरकारें इससे निपटने की कोई कारगर रणनीति आज तक नहीं बना पाई हैं। दरअसल मौत के ये आंकड़े सरकारों की नाकामी की ही कहानी बयां करते हैं कि पिछले पांच साल में सुरक्षा बलों के जितने जवान और नागरिक आतंकवाद के शिकार हुए हैं, उससे कहीं ज्यादा नक्सलवाद की भेंट चढ़े हैं। यह खबर और भी चौंकाने वाली है कि खुफिया एजेंसियों द्वारा लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ऐसे नक्सली हमलों के प्रति आगाह किये जाने के बावजूद हमारा सरकारी तंत्र सुरक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने में सुस्ती दिखाता रहा। बेशक तीन राज्यों की सीमा पर स्थित होने तथा घने जंगलों के चलते जीरम घाटी जैसे क्षेत्रों में नक्सलियों के लिए हमले कर फरार हो जाना आसान तथा सुरक्षा बलों के लिए उनके विरुद्ध अभियान चला पाना बेहद मुश्किल हो जाता हो, बावजूद इसके हमारी सरकारों को इस लाल आतंक के खात्मे का संकल्प तो लेना ही होगा।
यह सच है कि स्थानीय लोगों के सहयोग और समर्थन के बिना हमारी सरकारें मुल्क से दुर्दान्तों का भय समाप्त नहीं कर सकतीं पर यह भी सोचनीय है कि आखिर सरकारी तंत्र लोगों का विश्वास जीतने में नाकारा क्यों साबित हो रहा है? लोगों का विश्वास न जीत पाने की अपनी वजह हैं लेकिन इस सच्चाई से भी तो इंकार नहीं किया जा सकता कि नक्सली हिंसाग्रस्त इलाकों में सुरक्षा बलों के आॅपरेशन में जो सावधानियां बरती जानी चाहिए उनमें भी भारी खोट है। जीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं के काफिले पर नक्सली हमले की घटना के बाद इस घाटी की संवेदनशील इलाके के रूप में पहले ही पहचान हो चुकी थी बावजूद इसके सड़क निर्माण कार्य में लगे लोगों की सुरक्षा के लिए लगाए गए जवानों को पीछे से सुरक्षा कवर देने की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी और न ही किसी हमले की आशंका के मद्देनजर जवानों को समूह में चलने की बजाय टोलियों में चलने की सतर्कता बरती गई। बस्तर में नक्सली हमले की घटनाओं पर तात्कालिक चिन्ता जताने और इन हमलों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराने के बाद सब कुछ बिसरा दिए जाने का ही नतीजा है कि ऐसे हमलों को रोकने की आज तक ठोस नीति ही नहीं बन पाई। केन्द्र सरकार लाख यह दावा करे है कि वह नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्यों को हरसम्भव मदद दे रही है, पर यह समस्या सिर्फ राज्य ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण आवाम के सुरक्षा की बात है लिहाजा मुल्क की आंतरिक सुरक्षा में बार-बार लगती सेंध केन्द्र सरकार की भी बड़ी नाकामी है।
केन्द्र सरकार को लगातार हो रहे नक्सली हमलों और इन हमलों में बड़ी संख्या में सुरक्षा बल के जवानों की शहादत को गम्भीरता से लेते हुए इन्हें रोकने के उपायों की रणनीति तैयार करने में भी राज्य सरकारों के साथ प्रत्यक्ष भागीदारी के लिए आगे आना चाहिए। मुल्क से हर किस्म के आतंकवाद के खात्मे के लिए आज विशेष सजगता की जरूरत है। इस गम्भीर मसले पर सियासत नहीं होनी चाहिए। अपराधी किसी का सगा नहीं होता लिहाजा यदि मुल्क से डर भगाना है तो सभी को सामूहिक प्रयास करने होंगे। लोकसभा चुनाव सामने हैं इस बीच नक्सली ही नहीं अन्य आतंकी भी मुल्क की आंतरिक सुरक्षा में सेंध की साजिश रच सकते हैं लिहाजा सुरक्षा उपायों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। राजनीतिज्ञ दूसरे मुल्कों पर उंगली उठाने की बजाय अपनी आंतरिक सुरक्षा को फौलादी बनाने की पहल करें ताकि फिर किसी सुरक्षा जवान का सिर न कटे और कोई निर्दोष न मारा जाए।

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