Friday, 20 April 2018

गोल्ड कोस्ट में भी दिखा नारी शक्ति का जलवा


दमखम दिखाते हिन्दुस्तानी
श्रीप्रकाश शुक्ला
आस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में भारत का शीर्ष तीन देशों में शुमार तथा नारी शक्ति का जलवा इस बात का संकेत है कि खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर की निगहबानी में खिलाड़ियों में जोश और जज्बे का संचार हो रहा है। हरियाणावासियों के लिए तो यह सबसे ज्यादा गौरवशाली घड़ी है कि उसके 37 में से 22 खिलाड़ियों ने पदकों से अपने गले सजाये हैं। राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने 26 स्वर्ण सहित कुल 66 पदक जीते। कुल पदकों के एक तिहाई तमगे हरियाणा की झोली में जाना इस बात का सूचक है कि मुल्क की दो फीसदी जनसंख्या वाले राज्य ने खेलों को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया है। नई दिल्ली में हुए 2010 राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने कुल 101 पदक जीते थे तो 2014 में हुए ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों में भारत पदक तालिका में 15 स्वर्ण पदकों समेत कुल 64 पदकों के साथ पांचवें पायदान पर रहा था। यूं तो गोल्ड कोस्ट में ग्लासगो से दो ही पदक ज्यादा मिले हैं लेकिन स्वर्ण पदकों की तालिका में 11 पदकों की छलांग का विशेष महत्व है।
राष्ट्रमंडल खेलों में भारत की जहां तक बात है वह अब तक 207 स्वर्ण, 195 रजत और 168 कांस्य के साथ कुल 570 पदक जीत चुका है। भारतीय खेल प्रबंधन को यह भी गौर करना होगा कि भारत को तीसरे स्थान तक पहुंचाने में शूटरों का योगदान सबसे अहम रहा जो हमारे लिए अपेक्षाकृत नया क्षेत्र है। अगले राष्ट्रमंडल खेलों में अभी से निशानेबाजी पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, ऐसे में भारत को आस्ट्रेलिया में अच्छे प्रदर्शन के बाद भी कुछ खेलों पर ध्यान देने की जरूरत है। देखा जाए तो गोल्ड कोस्ट में राज्यों में हरियाणा तो खेलों में शूटिंग, टेबल टेनिस, भारोत्तोलन, कुश्ती और बैडमिंटन के सितारे तो चमके लेकिन परम्परागत हाकी तथा एथलेटिक्स में हमें अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। जहां तक राज्यों की बात है तो कभी शीर्ष पर रहने वाले पंजाब समेत देश के विशाल राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार आदि को हरियाणा जैसे छोटे किन्तु बेहद प्रतिस्पर्धी विजेता से खेलों के उत्थान के दांव-पेच सीखने चाहिए।
स्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में भारत का मान बढ़ाने वाले पदक विजेताओं को सिर-आंखों पर बिठाया जाना अच्छी पहल है। इसलिए भी कि पदक विजेताओं में युवा और लड़कियों की बड़ी भागीदारी एक बड़े बदलाव और बेहतर भविष्य का संकेत दे रही है। खुशी इसलिए भी कि अधिकांश खिलाड़ियों की उपलब्धियां सरकार और खेल संगठनों के सहयोग से नहीं बल्कि उन्होंने खेलों में काबिज राजनीति के बावजूद हासिल की हैं। अच्छे प्रदर्शन के बावजूद भारतीय खिलाड़ियों और खेल नुमाइंदों को आत्ममुग्धता की आत्मघाती प्रवृत्ति से बचना चाहिए। यह जानते हुए कि गिने-चुने देशों में ही खेली जाने वाली क्रिकेट को अपवाद मान लें तो एशियाई खेल, राष्ट्रमंडल खेल और ओलम्पिक खेल समेत ज्यादातर महत्वपूर्ण वैश्विक खेलों में भारत का प्रदर्शन कभी उसके आकार तथा आबादी के अनुरूप नहीं रहा। हाल के राष्ट्रमंडल खेलों की ही बात करें तो भारत के कुछ प्रदेशों से भी आकार और आबादी में कम आस्ट्रेलिया के 474 खिलाड़ियों ने 42 प्रतिशत सफलता के साथ 198 पदक जीते तो इंग्लैंड के 396 खिलाड़ी भी 34 प्रतिशत सफलता के साथ 136 पदक जीतने में सफल रहे। बेशक अतीत के मद्देनजर 66 पदकों के साथ पदक तालिका में तीसरे स्थान पर रहना भारत के लिए बड़ी उपलब्धि है लेकिन पहले और दूसरे स्थान पर रहे आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड से पदकों का फासला बताता है कि हम वास्तव में कहां खड़े हैं। भारत ने गोल्ड कोस्ट में 218 खिलाड़ी भेजे थे जो 30 प्रतिशत सफलता के साथ 66 पदक ही जीत पाये।
सच तो यह है कि राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने वाले देशों की आबादी भारत के कई राज्यों से भी कम है पर उपलब्धियां बेहद शानदार। बेशक कम आकार और आबादी के बावजूद भारत से अधिक पदक जीतने वाले आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड की गिनती विकसित देशों में होती है लेकिन हमने देखा है कि ओलम्पिक सरीखे खेल महाकुम्भ में तो गरीबी और भुखमरी से त्रस्त देश भी भारत से बेहतर प्रदर्शन कर जाते हैं। देखा जाए तो आजादी के सात दशक बाद भी भारत में खेल संस्कृति आकार नहीं ले पाई है। हर क्षेत्र की तरह भारत में खेलों पर भी राजनीति हावी है। ज्यादातर खेल संघों पर ऐसे राजनेता-नौकरशाह काबिज हैं जिनका खेलों से दूर-दूर तक कभी कोई रिश्ता नहीं रहा। राजनेताओं और नौकरशाहों की आजीवन खेल संघों पर काबिज रहने की अंतहीन लालसा के पीछे मुख्य वजह खेल संघों में निहित अकूत धन और दबदबा है। विश्व की सर्वाधिक धनी संस्थाओं में शुमार भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और हॉकी संघों समेत कई संस्थाओं पर कब्जे का झगड़ा अदालतों तक पहुंचना इसी बात का संकेत है।
भारत की जहां तक बात है यहां खिलाड़ी सरकारी मंशा से नहीं बल्कि अभिभावकों के कठोर त्याग से कुंदन बनते हैं। अगर यह अतिरंजना लगती है तो फिर कोई बताये कि 15 साल के अनीश भानवाल, 16 साल की मनु भाकर तथा दो स्वर्ण समेत चार पदक जीतने वाली गोल्डन गर्ल मनिका बत्रा की सफलता में सरकार और खेल संघों का कितना योगदान है। ज्यादातर भारतीय पदक विजेताओं की संघर्ष गाथा एक जैसी ही है जिन्होंने समाज और सरकार की उपेक्षा के बावजूद अपनी जिजीविषा और परिजनों के बेमिसाल सहयोग से यह मुकाम हासिल किया है। देश की मात्र दो प्रतिशत आबादी वाले हरियाणा के खिलाड़ियों ने राष्ट्रमंडल खेलों में 22  पदक जीते। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर शेष 98 फीसदी आबादी वाले राज्य क्या कर रहे हैं। खासकर पंजाब, जिसे कभी खेलों का पॉवर हाउस कहा जाता था। हरियाणा के 37 खिलाड़ियों में से 22 ने  पदक जीते, जबकि पंजाब के 28  खिलाड़ी मात्र तीन पदक ही जीत सके और उनमें भी कोई स्वर्ण नहीं। जिस पंजाब से कभी हॉकी स्टार और एथलीट निकलते थे, वह राज्य आज ड्रग्स की तस्करी और माइनिंग माफिया के लिए सुर्खियां बनता है। पंजाब ही नहीं यह शेष सभी राज्यों के लिए भी आत्मविश्लेषण का समय है कि वह हरियाणा से सबक और प्रेरणा लें, जहां के खिलाड़ियों ने अपनी संकल्प शक्ति और कड़ी मेहनत के बूते अपने परिवार और राज्य का ही नहीं बल्कि देश का भी मान बढ़ाया है। यह अस्वाभाविक नहीं कि बिना योगदान हरियाणा सरकार इन उपलब्धियों का श्रेय ले।
देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है जरूरत उन्हें ऊंची उड़ान भरने के लिए अनुकूल माहौल देने की है। पदक जीतने पर खिलाड़ियों को लाखों-करोड़ों के ईनाम मिलना अपनी जगह सही है लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है कि तैयारियों के लिए मदद और सही ढांचा मिले, जिसका सर्वथा अभाव नजर आता है। राष्ट्रमंडल के 88 साल के इतिहास में भारत का यह तीसरा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। भारत के इस नायाब प्रदर्शन में पुरुषों से कहीं अधिक महिलाएं शाबासी की पात्र हैं। भारत की बेटियों ने अपने शानदार प्रदर्शन से भारतीय दल के प्रदर्शन को यादगार बना दिया। प्रतियोगिता के पहले दिन जहां भारोत्तोलन में मीराबाई चानू ने भारत को स्वर्णिम शुरुआत दिलाई तो अंतिम दिन साइना और सिंधु ने बैडमिंटन में स्वर्ण और रजत पदक जीतकर धाक जमा दी। भारोत्तोलन में तीन महिलाओं ने सबसे अधिक पदक जीतकर भारत के लिए स्वर्ण अपने नाम किए, इनमें मीराबाई चानू, संजीता चानू और पूनम यादव शामिल हैं। निशानेबाजी में 16 वर्षीय मनु भाकर ने स्वर्ण पर निशाना साधकर अपना नाम इतिहास के पन्नों में लिखाया। निशानेबाजी में मिले सात स्वर्ण पदकों में से चार स्वर्ण पदक तो भारतीय महिला निशानेबाजों ने ही जीते। टेबल टेनिस में भारतीय महिला टीम ने पहली बार राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीता तो मनिका बत्रा ने महिला एकल में स्वर्ण जीतकर प्रतियोगिता में अपना दूसरा स्वर्ण हासिल किया। अनुभवी एमसी मैरीकॉम ने मुक्केबाजी में स्वर्ण जीतकर एक और उपलब्धि हासिल की तो कुश्ती में विनेश फोगाट ने अपने सभी मुकाबले जीतकर स्वर्ण पदक से अपना गला सजाया।
अब सवाल यह उठता है कि जब अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर गरीबतम परिवार और उनके बच्चे अपने प्रयासों से देश का परचम फहरा सकते हैं तो अगर सरकारें और समाज उनके साथ सच्चे दिल से खड़े हों तो वे भारत को खेलों में तो कम से कम उसके आकार अनुरूप सम्मान दिला ही सकते हैं। फिलहाल तो उनकी मुख्य भूमिका यही नजर आती है कि जब ये खिलाड़ी अपने परिवारों के तमाम बजट को निचोड़ कर, एड़ी-चोटी का जोर लगाकर पदक जीत लेते हैं तो स्वनाम धन्य लोगों की इनके साथ फोटो खिंचवाने की होड़ सी लग जाती है। जिस समय ये खिलाड़ी आर्थिक, सामाजिक यानि तमाम तरह की विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे होते हैं, उस समय विरले ही इनका हाथ थामने को आगे आते हैं। महिलाओं, दलितों व अल्पसंख्यक सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाले खिलाड़ियों के संदर्भ में यह हकीकत और भी भयावह है। कई प्रतिभाएं उपयुक्त खेल सुविधाओं, सही कोचिंग, किट व डाइट के अभाव में रास्ते में ही दम तोड़ जाती हैं। चयन में व्याप्त भाई-भतीजावाद द्वारा कितनों के ही पंख कतर दिए जाते हैं। कितनी ही यौन शोषण की शिकार प्रतिभाएं सालों साल अपना दर्द साथ लिए रास्ते तलाशने को मजबूर होती हैं। सच कहें तो आज अपनी हिम्मत और हौसले के आधार पर अपना स्थान बनाती प्रतिभाओं के विचारों, अनुभवों और आकांक्षाओं को शामिल करने से ही भारतीय खेल दर्शन समृद्ध होगा। दुनिया की खेल ताकतों द्वारा उनके यहां विकसित की गई खेल संस्कृतियों का रास्ता इन्हीं मुकामों से होकर गुजरा है।
                                 हरियाणा का जवाब नहीं
हरियाणा सरकार की नई खेल नीति जहां व्यावहारिक नजर आती है वहीं इसमें नये खिलाड़ियों के लिये प्रेरक तत्व भी हैं। विडम्बना है कि देश के लिये युवा अवस्था में खून-पसीना एक करने वाले खिलाड़ियों को ढलती उम्र में अपना भविष्य अंधकारमय नजर आने लगता है। प्रतिष्ठा, अप्रत्याशित पैसा और वाहवाही के बाद जिन्दगी अर्श से फर्श का मुहावरा दोहराती दिखती है। खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन के हिसाब से हरियाणा प्रशासनिक सेवा और हरियाणा पुलिस सेवा में सम्मानजक नौकरी देने का मनोहर लाल खट्टर सरकार का फैसला प्रशंसनीय कदम है। हरियाणा की वर्ष 2015 की खेल नीति में हुड्डा सरकार ने स्वर्ण पदक विजेताओं को सीधे डीएसपी बनाने की नीति को अपनाया था। खिलाड़ियों को नौकरी देने की पहल करने वाला हरियाणा देश का पहला राज्य है। खुशी की बात है कि अब हरियाणा के खिलाड़ी ओलम्पिक, विश्वस्तरीय स्पर्धा, राष्ट्रमंडल खेल, एशियाई खेल तथा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयीन खेलों में भी पदक जीतकर नौकरी हासिल कर सकेंगे तो निचले पदकों के विजेताओं, वैश्विक स्पर्धाओं में सेमीफाइनल व क्वार्टर फाइनल तक पहुंचने वाले खिलाड़ियों को भी निर्धारित श्रेणियों में नौकरी हासिल करने की पात्रता होगी। सरकार के इस फैसले से जहां खिलाड़ियों का आर्थिक पक्ष सुरक्षित होगा वहीं हरियाणा में स्वस्थ खेल संस्कृति का विकास होने से इंकार नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो पूरे देश में खेल प्रतिभाएं ऐसे समाज से आती हैं जहां जीवन का संघर्ष बेहद कठिन हो चला है। मां-बाप अपनी पूंजी दांव पर लगाकर अपने बच्चों को खेल के मैदान पर उतारते हैं। उन पर परिवार की आर्थिक उम्मीदें भी टिकी होती हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि हर खिलाड़ी कामयाब हो जाये। फिर यदि कामयाब हो भी जाये तो फिर समृद्धि चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात वाली होती है। ईनाम की राशि से आखिर कब तक जीवन जिया जा सकता है। हरियाणा की नई खेल नीति से प्रतिभाओं को अपना भविष्य सुरक्षित नजर आयेगा और अभिभावक कह सकेंगे, खेलोगे कूदोगे बनोगे नवाब।


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