Wednesday, 31 August 2016

सिस्टम सुधरे तभी होगा खेलों का विकास


रातोंरात नहीं बदलेगी खेलों की बदहाल स्थिति
श्रीप्रकाश शुक्ला
रियो ओलम्पिक के समापन के बाद भारतीय खिलाड़ियों के शर्मनाक प्रदर्शन पर हर कोई अपनी-अपनी अलग राय दे रहा है। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी लगा कि सवा अरब आबादी वाले देश के लिए यह संतोषजनक स्थिति नहीं है। श्री मोदी ने इसके लिए एक माकूल कार्ययोजना को मूर्तरूप देने का मन बना चुके हैं। सवाल यह कि जब सारा का सारा सिस्टम ही खराब हो तो उसमें बदवाल की शुरुआत कैसे और किस तरह हो। किसी भी ध्वस्त सिस्टम को रातोंरात नहीं सुधारा जा सकता, इसके लिए सालोंसाल मेहनत की जरूरत होगी। अगर हमारी हुकूमतें, एसोसिएशंस और हम सब मिलकर मेहनत करें तो शायद आने वाले कुछ ही वर्षों में भारतीय खेलों की किस्मत बदल सकती है।
रियो ओलम्पिक से पूर्व खेलों के जवाबदेह तंत्र भारतीय खेल प्राधिकरण ने अपनी 240 पृष्ठों की जो रिपोर्ट भारतीय खेल मंत्रालय को सौंपी थी, उसमें भारत के 12 से 19 पदक जीतने की सम्भावना जताई गई थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भला हो साक्षी मलिक और पीवी सिंधू का जिन्होंने अपने नायाब प्रदर्शन से भारत की झोली खाली नहीं रहने दी। असंतोष इस बात का कि क्या सवा सौ करोड़ की जनसंख्या वाला यह देश सिर्फ दो पदक ही डिजर्व करता है। कोई खिलाड़ियों को कोस रहा है तो कुछ खेलमंत्री के पीछे पड़े हैं। दरअसल, यह वक्त खेलमंत्री या खिलाड़ियों को गाली देने का नहीं है। बिना अपनी गलतियों को दुरुस्त किए रातोंरात ओलम्पिक पदक का सपना साकार नहीं किया जा सकता। खेलों में बदलाव के लिए पूरे सिस्टम को बदलना होगा।
देखा जाए तो भारत में खेल और खिलाड़ियों का ख्याल रखने के लिए एक अलग मंत्रालय है। स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया खेलों को बढ़ावा देने के लिए काम कर रही है। खेल मंत्रालय को हर साल हजारों करोड़ का बजट आवंटित किया जाता है। सवाल उठता है कि ये पैसे आखिर कहां खर्च हो रहे हैं। क्या वह पैसा सही जगह पर लग भी रहा है या बागड़ ही खेत चर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह समस्या आज की है। इससे पहले भी जितनी सरकारें रही हैं, किसी ने खेलों और खिलाड़ियों को कोई खास तरजीह नहीं दी। भारतीय खेलों के सत्यानाश होने की तोहमत प्रायः क्रिकेट पर लगाई जाती है, जोकि उचित नहीं है। आज हमारे यहां खेलों का जो सिस्टम है उसमें पैसा तो सरकार खर्च करती है लेकिन अधिकांश एसोसिएशन उन हाथों में हैं, जिनका खेलों से कोई वास्ता नहीं है। बावजूद इसके खिलाड़ियों के चयन में उन्हीं की मनमर्जी चलती है और खिलाड़ियों के चयन में पारदर्शिता का प्रायः अभाव रहता है।
आज लगभग आधे भारत की आबादी कुपोषण का शिकार है। आधी से अधिक जनसंख्या ऐसी है जिसे शुद्ध और न्यूट्रीशियस खाना मयस्सर नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, चीन की तुलना में हमारा फिजिक कमजोर है और हम उनसे प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं। इसकी वजह यह है कि हमारे देश में एथलीट्स के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह प्रॉपर डाइट प्लान को फॉलो कर पाए। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह खेल बजट को बढ़ाए ताकि राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के खाने-पीने से ट्रेनिंग तक का जिम्मा उठाया जा सके। बजट बढ़ने से खिलाड़ियों की आवश्यकता को बेहतर किया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के कोच रखे जा सकते हैं जिनकी निगरानी में हमारे एथलीट्स तैयारी कर सकते हैं।
देखा जाए तो जब-जब ओलम्पिक या कोई बड़ी स्पर्धा आती है तब-तब हमारे एसोसिएशनों की नींद खुलती है। फिर अफरा-तफरी और आनन-फानन में खिलाड़ियों की तलाश शुरू हो जाती है। ओलम्पिक में खराब प्रदर्शन के बाद दो-चार गालियां सुनकर स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया फिर से कुम्भकर्णी नींद सो जाता है। दरअसल इस ढिलाई को दूर करने की आवश्यकता है। अगर भारत को खेल जगत में कुछ अच्छा करना है तो देश में खेलों का माहौल बनाना आवश्यक है। इसके लिए खेल मंत्रालय को स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया पर कड़ी नजर रखनी होगी। देखना होगा कि क्या राष्ट्रीय, राज्य और जिलास्तर पर खिलाड़ियों के लिए माकूल इंतजाम किये जा रहे हैं, क्या निचले स्तर पर खिलाड़ियों तक सुविधाएं पहुंच रही हैं। यह काम वातानुकूलित कमरों में बैठकर नहीं होगा। प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए गांवों और छोटे शहरों तक पहुंच बनानी होगी। आज के समय में खेल भी करियर बनाने का एक बहुत बड़ा मौका बन चुका है। एक समय था जब कॉलेजों से राष्ट्रीय स्तर के बड़े खिलाड़ी निकलते थे लेकिन आज वह परम्परा लगभग खत्म होती सी दिखाई दे रही है। स्कूल और कॉलेजों में स्पोर्ट्स के प्रति छात्रों को प्रोत्साहित करना होगा। ज्यादातर स्कूलों में आजकल सिर्फ क्रिकेट को ही स्पोर्ट्स माना जाता है, इस सोच को बदलने की जरूरत है। स्कूल और कॉलेज वे प्लेटफार्म हैं जहां से अंतरराष्ट्रीय स्तर के स्टार की तलाश पूरी की जा सकती है। स्कूल और कॉलेजों में क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी और टेनिस के साथ-साथ एथलेटिक्स, रेसलिंग, शूटिंग, स्वीमिंग, जिमनास्टिक जैसे अन्य खेलों को भी बढ़ावा देना होगा। इसके लिए हर स्कूल में स्पेशलिस्ट स्पोर्ट्स एजूकेशन टीचरों की नियुक्ति होना भी आवश्यक है।
हमारे देश की अजीब विडम्बना है कि यहां एक मिडिल क्लास फैमिली भी अपने काम खुद से करने में अपनी तौहीन समझती है। अगर किसी को एक गिलास पानी चाहिए तो वह उनका नौकर लाकर देगा। वह खुद शारीरिक मेहनत नहीं कर सकता। यह मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। यह बात बिल्कुल सच है कि हर इंसान भारत के लिए नहीं खेल सकता लेकिन क्या खुद को फिट रखने में कोई बुराई है। अगर हर शख्स सिर्फ अपनी फिटनेस के लिए ही खेलों को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना ले तो आने वाली पीढ़ी खुद मजबूत और स्वस्थ हो जाएगी। खेलों की बदहाल स्थिति को बदलने के लिए स्पोर्ट्स कल्चर डेवलप करना आज के समय की मांग है। साथ ही साथ स्वयंसेवी संगठन और अन्य सामाजिक संगठनों को खेल के प्रति युवाओं की रुचि जगाने के लिए निचले स्तर पर जागरूकता फैलानी होगी। गांवों, कस्बों और शहरों में छोटी-छोटी प्रतियोगिताएं आयोजित करनी होंगी। देश में खेलों का सिस्टम अकेले मोदी या खेलमंत्री नहीं सुधार सकते इसके लिए सभी का योगदान आवश्यक है।


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