Saturday, 21 September 2013

भाजपा नहीं, मोदी का सबको डर

कमल दल ने जब से देश की सल्तनत को हासिल करने के लिए नरेन्द्र मोदी की खोज की है राजनीतिक हलकों में भूचाल आ गया है। मोदी को लेकर सिर्फ छोटे दल ही नहीं कांग्रेस भी बगलें झांकने लगी है। दिल्ली अभी दूर है पर मोदी को लेकर देश का युवा मतदाता जिस तरह अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है, उससे राजनीतिक दलों में एक अनचाहा डर समा गया है। राजनीतिक दलों की बेचैनी का आलम यह है कि सभी गोधरा-गोधरा चिल्ला रहे हैं तो देश का यंगिस्तान सिर्फ और सिर्फ नमो-नमो की रट लगा रहा है।
लोकसभा चुनाव की दुंदुभी बजना शेष है बावजूद राजनीतिक दल अपने-अपने रणबांकुरों की पीठ थपथपा विपक्षी दलों के गुण-दोष गिनाने लगे हैं। दोस्त दुश्मन बन रहे हैं तो सत्तालोलुप तिकड़मबाजी का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। मोदी पर दांव खेलकर भाजपा ने जहां अपने कई दोस्त दलों को नाराज कर दिया है वहीं अब 272 का जादुई आंकड़ा उसका मुंह चिढ़ा रहा है। भाजपा के अस्तित्व को देखें तो देश के लगभग आधे हिस्से में भी उसकी पैठ नहीं है। दक्षिण भारत के केरल, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश जैसे सूबों के साथ देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में कमल दल का अस्तित्व सतह पर है तो दूसरी तरफ महिला सांसदों के गणित में भी वह कांग्रेस से बहुत पीछे है। पिछले लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस की 25 महिला सांसदों ने संसद की सौंध में कदम रखा था वहीं भाजपा की 14 सांसद ही कमल खिला सकी थीं। बीते लोकसभा चुनावों में बेशक 62 महिला सांसद संसद तक पहुंची हों पर आगत लोकसभा चुनावों में महिलाओं की बड़ी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो 14वीं लोकसभा में जो दल यंगिस्तान और देश की आधी आबादी के मर्म को समझ सका उसे ही देश की सल्तनत पर राज करने का मौका मिलेगा। भाजपा ने मोदी को चुनावी मझदार का खेवनहार तो बना दिया है पर उसके सामने हिन्दीभाषी राज्यों में कमल खिलाने का दुरूह दायित्व है। अतीत में कमल दल पश्चिम बंगाल, ओडिशा, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों में गठजोड़ के साथ अपना अस्तित्व कायम रखने में तो सफल रहा पर मौजूदा समय में इन राज्यों में केवल महाराष्ट्र में शिवसेना को छोड़कर कोई उसके साथ नहीं है। भाजपा कुल 543 में से कोई 350 लोकसभा सीटों पर ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। मुल्क के तख्तोताज पर कब्जे के लिए उसे 250 सीटें तो जीतनी ही होंगी।
देखा जाए तो कमल दल में नरेन्द्र मोदी के समकक्ष शिवराज सिंह और डॉ. रमन सिंह जैसे कामयाब मुख्यमंत्री भी हैं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दुत्व के प्रखर पहरुआ को ही देश की कमान सौंपना चाहता है। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी को बेशक कमल दल का सर्वमान्य शख्स निरूपित किया जा रहा हो पर पार्टी के पितामह लालकृष्ण आडवाणी का बार-बार कोपभवन में जाना और मुंह लटकाये वापस आना पार्टी में सब कुछ ठीकठाक होने का संकेत नहीं देता। जो भी हो तीर कमान से निकल चुका है, अब वह लक्ष्य तभी भेद पाएगा जब कमल दल एक होगा। नरेन्द्र मोदी करिश्माई नेता हैं। उनकी साफ-सुथरी छवि और हिन्दुत्व की अलम्बरदारी उन्हें देश के अन्य नेताओं से बिल्कुल अलग ठहराती है। मोदी ने रेवाड़ी (हरियाणा) में पूर्व सैनिकों की एक रैली में कांग्रेस पर निशाना साधकर इस बात के संकेत दिए हैं कि वह आसानी से हार नहीं मानने वाले। इस रैली में पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल विजय कुमार सिंह की मौजूदगी जहां मोदी को मजबूत बनाती है वहीं इस बात के संकेत भी मिल रहे हैं कि भविष्य में जोड़-तोड़ के कुछ और नायाब उदाहरण देखने को मिल सकते हैं। 2004 में चुनावी पराजय के बाद भारतीय जनता पार्टी केन्द्रीय सल्तनत पर काबिज होने के लिए लालायित है, उसकी लालसा 2009 के चुनावों में भी पूरी नहीं हुई थी। पर इस बार कमल दल को लग रहा है कि वह कांग्रेस-नीत यूपीए पर भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ाने की तोहमत लगाकर देश की बागडोर सम्हाल सकती है। यूं पार्टी में मोदी को छोड़कर कोई ऐसा करिश्माई नेतृत्व नहीं है, जो पार्टी को अपने बलबूते 200 से ज्यादा सीटें दिला सके।
भाजपा और आरएसएस को लग रहा है कि चुनावी वैतरणी को मोदी की छवि और चेहरा पार लगा सकता है, लेकिन वह अकेले किस प्रकार यह काम कर पाएंगे, यह बड़ा सवाल है? देखा जाए तो देश के मतदाता का चरित्र एक जैसा कभी नहीं रहा। 1975 में आपातकाल लगने के बाद जब 1977 का चुनाव हुआ, तब लगा कांग्रेस जनता पार्टी की आंधी में उड़ जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसी तरह 1987 में रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफा देने के बाद बोफोर्स दलाली के मुद्दे पर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस विरोधी लहर बनायी, तब भी लगा था कि राष्ट्रीय मोर्चा रिकार्ड बहुमत से जीतकर सरकार बनाएगा। लेकिन तब भी तमाम आरोपों से घिरी कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटें जीतने में सफल रही। भाजपा के साथ अभी सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई क्षेत्रीय दल उसके साथ खड़े होने को तैयार नहीं है। 1998 में एनडीए का गठन 24 क्षेत्रीय दलों को साथ में लेकर किया गया था। 2004 के आते-आते घटक दल केवल 12 रह गए और नरेन्द्र मोदी को कमान सौंपने के बाद अब गिने-चुने दल ही भाजपा के साथ हैं। भारतीय जनता पार्टी को यदि मोदी की उम्मीदों को पर लगाने हैं तो उसे देश में पहली बार मत डालने जा रहे 15 करोड़ युवा मतदाताओं और महिलाओं पर नजर रखनी होगी। देखा जाये तो 2009 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय नौ सांसदों सहित देश के 38 राजनीतिक दलों में से केवल दस दल ही 10 या उससे अधिक सीटें जीत पाए थे। तब कांग्रेस ने 206 तो भाजपा ने 116 सीटें जीती थीं और समाजवादी पार्टी 22 सीटों के साथ तीसरे तथा बसपा 21 सीटों के साथ चौथे स्थान पर रही थी। जनता दल यूनाइटेड से भी 20 सांसद दिल्ली पहुंचे थे। अब भाजपा से इनकी अनबन के बाद मोदी पर जवाबदेही होगी कि वह हिन्दीभाषी राज्यों में कुछ करिश्मा दिखाएं। राह आसान नहीं है पर कमल दल के लिए खुशखबर यह है कि वह देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में अधिक से अधिक सीटें जीतने का मंत्र फूंक सकती है। मुजफ्फर नगर दंगों ने यूपी के मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण कर दिया है जिसका लाभ भाजपा को मिल सकता है। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा और मोदी को पांच हिन्दीभाषी राज्यों में अपनी सरकारें बनानी होंगी। भाजपा को दिल्ली के तख्तोताज के लिए देश की अधिकांश लोकसभा सीटों पर न केवल प्रत्याशी खड़े करने होंगे बल्कि टिकट वितरण में देश की आधी आबादी और ग्रामीण मतदाताओं का विशेष ध्यान रखना होगा।

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