Sunday, 8 September 2013

हॉकी के महायोद्धा कैप्टन रूप सिंह

भारतीय खेलों का इतिहास जांबाज खिलाड़ियों के हैरतअंगेज कारनामों से भरा पड़ा है। इतिहास में महान खिलाड़ियों की अमरगाथा भी है और जीवंतता भरा उनका प्रदर्शन भी। मुकाबला चाहे खेल के मैदान पर हो या फिर जंग में, जीत के लिए जो सब कुछ दांव पर लगाता है वही सिकंदर कहलाता है। रिंग मास्टर-अचूक स्कोरर कैप्टन रूप सिंह आज ही के दिन आठ सितम्बर, 1908  को मध्यप्रदेश के जबलपुर में सोमेश्वर सिंह के घर जन्मे थे। इनकी शिक्षा-दीक्षा उत्तर प्रदेश के झांसी शहर में हुई और यहीं उन्होंने हीरोज मैदान में अपने बड़े भाई ध्यानचंद के साथ हॉकी की वर्णमाला सीखी थी। बिना गुरु के इस अप्रतिम हॉकी खिलाड़ी ने इस खेल को न केवल दिल से खेला बल्कि गुलाम भारत को दो बार (1932 और 1936 में) ओलम्पिक का स्वर्ण मुकुट भी पहनाया। इन दोनों ही अवसरों पर हॉकी के जादूगर अपने अग्रज ध्यानचंद के होते हुए भी वह ओलम्पिक के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रहे।
हॉकी मैदान का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जहां रूप सिंह खेल नहीं सकते थे। यह खूबी तो इस खेल के जादूगर कहे जाने वाले ध्यानचंद में भी नहीं थी।  गाहे-बगाहे दद्दा स्वयं कहते भी थे कि रूप सिंह हमसे बड़ा खिलाड़ी है। कैप्टन रूप सिंह 1930 में ग्वालियर आ गये और इनकी काबिलियत व उम्दा खेल ने इन्हें सिंधिया परिवार की आंखों का नूर बना दिया। सोमेश्वर के परिवार ने खेल को धर्म और विजय को प्रसाद माना यही कारण है कि इस परिवार में जो भी जन्मा खिलाड़ी के रूप में ही जन्मा। एक समय तो ऐसा भी आया जब इस परिवार के पास हॉकी की मुकम्मल टीम थी। हॉकी में संसारपुर गांव और सोमेश्वर सिंह का परिवार एक-दूसरे के पूरक हैं। सच कहें तो हॉकी की धर्म संसद दद्दा ध्यानचंद और रूप सिंह के बिना पूरी नहीं होती। दद्दा जहां उच्चकोटि के हमलावर थे वहीं कैप्टन रूप सिंह इस खेल के महान योद्धा। ओलम्पिक के आंकड़े रूप सिंह को जहां सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनकारी साबित करते हैं वहीं दीगर प्रतियोगिताओं में जादूगर की ही जादूगरी चली।
हॉकी की जब भी बात होती है दद्दा ध्यानचंद ही लोगों को याद आते हैं। न जाने लोग क्यों उस महायोद्धा को भूल जाते हैं जिसने 15 अगस्त, 1936 को आततायी हिटलर का भी दिल जीत लिया था। उस दिन दद्दा ध्यानचंद को नहीं बल्कि रूप सिंह को हिटलर ने बधाई और जर्मनी में नौकरी का प्रलोभन दिया था। जर्मनी का 8-1 से मानमर्दन करने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि तानाशाही का प्रतिमान हिटलर विजय समारोह में शायद ही हिस्सा ले। लोग परेशान थे कि कहीं हिटलर भारतीय टीम को सोने के तमगे पहनाने से इंकार न कर दे। वह कुछ भी कर सकता था लेकिन उस दिन उसने अपनी देशभक्ति को ताक पर रख हिन्दुस्तान को सलाम किया। बर्लिन की उस शाम को हिटलर जहां ध्यानचंद को सोने का तमगा पहना रहा था वहीं दूसरी तरफ वह रूप सिंह की वाहवाही करता यह भी कह रहा था कि रूप सिंह तुम विलक्षण हो, तुम सा हॉकी महायोद्धा नहीं देखा। उस दिन एक तरफ भारतीय पलटन मुस्करा रही थी तो दूसरी तरफ असहाय जर्मन टीम पराजय के आंसू बहाती दिखी। जर्मनी पर 8-1 की विजय में रूप सिंह ने चार तो ध्यानचंद ने तीन गोल किये थे। उस ओलम्पिक में ध्यान और रूप की जोड़ी ने 11-11 गोल किये थे पर सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का सम्मान रूप सिंह को ही मिला था।
1932 के ओलम्पिक में भी ध्यान और रूप की जोड़ी जमकर खेली थी और भारत को स्वर्ण मुकुट पहनाया था पर प्रतियोगिता में 13 गोल करने वाले रूप सिंह ही सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रहे। उस ओलम्पिक में अमेरिका पर 24-1 की ऐतिहासिक जीत में कैप्टन रूप सिंह ने 12, ध्यानचंद ने सात तो गुरमीत सिंह ने तीन गोल किए थे। अफसोस इस मुकाबले की जब भी बात होती है रूप सिंह के एक दर्जन गोलों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। हॉकी के महायोद्धा कैप्टन रूप सिंह को देश में जो सम्मान मिलना चाहिए वह आज तक नहीं मिला। इसकी वजह पर गौर करें तो ध्यानचंद के पुत्र अशोक कुमार पितृमोह में अपने चाचा के खेल के साथ नाइंसाफी के कुसूरवार हैं। वह आज अपने पिता मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न दिलाने के लिए जहां लॉबिंग कर रहे हैं वहीं लोगों को गलत आंकड़े बताकर अपने चाचा के चमत्कारिक खेल पर पानी फेर रहे हैं।
कैप्टन रूप सिंह सिर्फ हॉकी ही नहीं बल्कि क्रिकेट और लॉन टेनिस के भी अच्छे खिलाड़ी रहे हैं। 1946 में उन्होंने ग्वालियर स्टेट की तरफ से दिल्ली के खिलाफ रणजी ट्राफी मैच भी खेला है। देश के खेलनहार बेशक कैप्टन रूप सिंह को भूल चुके हों पर जर्मनी के म्यूनिख शहर में कैप्टन रूप सिंह मार्ग इस विलक्षण हॉकी खिलाड़ी की आज भी याद दिलाता है। कैप्टन रूप सिंह दुनिया के पहले ऐसे खिलाड़ी हैं जिनके नाम ग्वालियर में फ्लड लाइटयुक्त क्रिकेट का मैदान है। हॉकी में ध्यान और रूप दोनों बेजोड़ थे। ध्यानचंद दिमाग तो रूप सिंह दिल से हॉकी खेलते थे। एक कोख के इन सपूतों ने हॉकी में बेशक देश को अपना सर्वस्व दिया हो पर ओलम्पिक के हीरो रूप सिंह को कुछ भी नहीं मिला। गुरबत में जीते आखिर रूप सिंह ने 16 दिसम्बर, 1977 को आंखें मूद लीं। हे कालजयी तुम्हें सलाम।

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