Saturday, 12 October 2013

नि:शक्तजनों को रोजगार की कवायद

भारतीय न्यायपालिका ने एक और सराहनीय फैसला सुनाकर उन नि:शक्तजनों के मायूस चेहरों पर मुस्कान बिखेर दी है जोकि हमारे समाज के दयापात्र तो हैं लेकिन उन्हें बराबरी का हक देने से हर किसी को गुरेज है। वैसे हमारी सरकारें शारीरिक अक्षम लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाओं को अमलीजामा पहना चुकी हैं पर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में असल चिंतन न्यायपालिका ने ही किया है। अब सवाल यह उठता है कि नि:शक्तों को तीन फीसदी आरक्षण मिलेगा भी तो कैसे?
शारीरिक अक्षम लोग भी आत्मनिर्भर बनें, वे किसी की दया के मोहताज न हों इसके लिए उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र और राज्य सरकारों को चेताया है कि वे अपने सभी विभागों, संस्थाओं व कम्पनियों में उनके लिए तीन फीसदी आरक्षण की व्यवस्था करें। शारीरिक अक्षम लोगों के हितार्थ उच्चतम न्यायालय का यह फरमान काबिलेतारीफ है। प्रधान न्यायाधीश पी. सदाशिवम, न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की पीठ ने नि:शक्तजनों की आत्मनिर्भरता के लिए रोजगार को एक महत्वपूर्ण कारक माना है। सामाजिक नजरिये से देखें तो यह खतरनाक हकीकत है कि मुल्क में नि:शक्तों की संख्या के लिहाज से उन्हें नौकरी के बहुत कम अवसर हैं। अवसरों की कमी के चलते अधिकांश नि:शक्त सामाजिक दया के भरोसे जीवन-यापन कर रहे हैं।
नि:शक्तजन नौकरियों से इसलिए दूर नहीं हैं कि उनकी विकलांगता  कामकाज में आड़े आती है बल्कि मुल्क में कई सामाजिक और व्यावहारिक बाधाएं विद्यमान हैं जो कार्यशक्ति में उन्हें शामिल करने से रोकती हैं। विकलांगों के लिए हमारे समाज में दयाभाव तो है पर उन्हें जब भी अधिकार सम्पन्न बनाने की बात आती है हम चेतनाशून्य हो जाते हैं। नि:शक्तता आज समाज के सामने कोढ़ बन गई है। बस स्टैण्डों, रेलवे स्टेशनों या फिर पर्यटक स्थलों में दया की भीख मांगते लोगों को सहज देखा जा सकता है। विकलांगता जन्मजात हो या किसी दुर्घटना से उपजी नि:शक्तता, हमारे समाज में इन्हें दया और बेचारगी का पात्र तुरंत बना दिया जाता है। अफसोस हम इनके मनोवैज्ञानिक पहलू पर जरा भी विचार नहीं करते। हमारी दयादृष्टि उनका सहारा तो नहीं बनती पर उनके अंतस को भीतर ही भीतर जरूर बेध देती है।
सामान्य लोगों की तरह चलने-फिरने, बातें करने या देखने में अक्षम होने की पीड़ा नि:शक्त तो भुगतते ही हैं, ऐसे में उन्हें यह एहसास कराना कि वे किसी के रहमोकरम पर जिन्दा हैं, उनकी पीड़ा को और बढ़ाना ही है। नि:शक्तों को प्राय: कुछ लोगों की ही दया नसीब होती है अधिकांशत: इन्हें लोगों की उपेक्षा का दंश ही भुगतना होता है। नि:शक्तजन सिर्फ समाज ही नहीं बल्कि घर-परिवार के लोगों के लिए भी बोझ बन जाते हैं। यूं तो हमारी सरकारें नि:शक्तजनों के हितार्थ नित नई-नई कल्याणकारी योजनाएं बनाती हैं, लेकिन इन योजनाओं को कभी पूरी ईमानदारी से अमल में नहीं लाया जाता। यही वजह है कि सारी की सारी योजनायें नि:शक्तों को खून के आंसू रुलाती हैं।
गौरतलब है कि मुल्क में 1995 में नि:शक्तजन अधिनियम तैयार हुआ लेकिन इसके अमल में कोताही बरतने के चलते 18 साल बीत जाने के बाद भी नि:शक्तों के चेहरे नहीं खिलखिलाए। नि:शक्तों की जीवनशैली में कोई गुणात्मक सुधार नहीं आया। अंतत: अपने अधिकारों की रक्षा के लिए नि:शक्तों के राष्ट्रीय संगठन को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। नि:शक्तों की भलाई के लिए इसी साल सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत गठित नए नि:शक्तता कार्य विभाग ने नि:शक्तजन अधिनियम 1995 में संशोधन मसौदा तैयार किया और इसे 1995 के पुराने कानून की जगह लागू करने का प्रस्ताव दिया, जिसके बारे में ज्यादातर लोगों की राय है कि यह नि:शक्तजनों के अधिकारों की रक्षा करने में अक्षम साबित हुआ है। देखा जाए तो कानून अधिसूचित होने के बावजूद विकलांगों को आरक्षण नहीं मिल पाता।
नि:शक्तजनों के कल्याण की दिशा में केन्द्र सरकार भी गम्भीर नहीं है। यदि वह गम्भीर होती तो दिल्ली हाईकोर्ट में दायर की गई याचिका के खिलाफ उच्चतम न्यायालय न गई होती। केन्द्र ने नि:शक्तजनों को तीन फीसदी आरक्षण देने पर दलील दी कि अनुसूचित जाति का 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति का सात प्रतिशत और पिछड़े वर्ग का 27 प्रतिशत आरक्षण मिलाकर 49 प्रतिशत हो जाता है, ऐसे में तीन प्रतिशत आरक्षण और जोड़ने से यह पचास प्रतिशत की सीमा को पार कर जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र की इस दलील को  खारिज करते हुए कहा कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के आरक्षण का आधार सामाजिक है, जबकि नि:शक्तों की श्रेणी में सभी जाति, वर्ग और धर्म के लोग आते हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि नि:शक्तजनों को आरक्षण देते वक्त 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिए जाने के सिद्धांत को लागू नहीं किया जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद केन्द्र और राज्य सरकारों के पास कोई बहाना नहीं रह जाता कि वे नि:शक्तजनों को आरक्षण देकर उन्हें रोजगार हासिल करने के अवसरों से वंचित रखें। न्यायालय ने साफ-साफ चेताया है कि नि:शक्तजनों के आरक्षण की व्यवस्था का पालन नहीं करने को अवज्ञा मानते हुए सम्बद्ध नोडल अधिकारियों के खिलाफ विभागीय कार्यवाही शुरू की जाएगी। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के बाद अब केन्द्र और राज्य सरकारों को सभी प्रतिष्ठानों में उपलब्ध रिक्तियों की संख्या की गणना करने के साथ तीन महीने के भीतर नि:शक्तों के लिए पदों की पहचान कर बिना हीलाहवाली उन्हें रोजगार देना होगा। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले से विकलांगों के मायूस चेहरों पर बेशक मुस्कान लौटी हो पर वे समाज की मुख्यधारा से तभी जुड़ पाएंगे जब विद्यालयों, सार्वजनिक स्थलों, यातायात आदि में भी उनके लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हों। वे स्वरोजगार करना चाहें तो बैंकों से ऋण लेने में उन्हें दिक्कतें न आएं। निजी शिक्षण संस्थानों और कार्यालयों में भी उनके लिए ऐसी ही व्यवस्था हो जाए तो उन्हें अपने जीवन-यापन के लिए किसी के सामने हाथ नहीं पसारना पड़ेगा। समय की दरकार है कि नि:शक्तों को न केवल रोजगार मिले बल्कि इनके प्रति समाज का दृष्टिकोण भी बदले।

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