Tuesday 2 April 2019

भाजपा के गढ़ मथुरा में महागठबंधन की फांस


श्रीप्रकाश शुक्ला
भगवान श्रीकृष्ण की धरती मथुरा इस बार भारतीय जनता पार्टी के लिए परेशानी का सबब बनती दिख रही है। हेमा मालिनी दूसरी बार दिल्ली की सल्तनत तक पहुंचने के लिए जहां खेतों में कूद पड़ी हैं वहीं महागठबंधन प्रत्याशी नरेन्द्र सिंह जनता जनार्दन से जीवंत सम्पर्क बनाते दिख रहे हैं। 17वीं लोकसभा का चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा इस बात का पता तो 23 मई को चलेगा लेकिन मथुरा सीट ड्रीम गर्ल के लिए हाट सीट बन चुकी है।
मौजूदा हालातों को देखें तो आज के समय में राजनीति सेवा की जगह समझौतों के आंचल में खेलती नजर आती है। भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में इस बार कांग्रेस से कहीं अधिक रालोद-सपा-बसपा की जोरा-जोरी परेशान कर रही है। मथुरा सीट पर स्थानीयता की हवा बह चली है इससे गठबंधन की गांठ दिन-ब-दिन मजबूत होती जा रही है। मथुरा सीट पर हेमा के साथ जो लाव-लश्कर होना चाहिए, उसका भी अभाव साफ-साफ देखा जा रहा है। इस सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी महेश पाठक को भी कमतर नहीं माना जा सकता। पाठक की ताकत भाजपा के लिए संजीवनी का काम कर सकती है।
देखा जाए तो राजनीति में सक्रिय पार्टियों को समझौतों की आवश्यकता तभी होती है, जब वे यह मान लेती हैं कि जिस विरोधी को उन्हें हराना है, वह उनसे अधिक सशक्त है और सहयोगियों को साथ लेकर ही उसका मुकाबला करना सम्भव है। इसी के साथ एक तथ्य यह भी है कि राजनीति में समर्थक, सहयोगी और विरोधी बदलते रहते हैं। मिसाल के तौर पर अटलबिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बैनर पर जिन दलों के सहयोग से सत्ता हासिल की थी, उनमें से कई आज भाजपा के कट्टरविरोधी बनकर उभरे हैं। इनमें खासतौर से ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और चंद्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम पार्टी का नाम लिया जा सकता है।
राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो भगवान श्रीकृष्ण की पावन धरती मथुरा हमेशा से ही राजनीतिक दलों के लिए खास रही है। आजादी के बाद शुरुआती चुनावों में यहां कांग्रेस का दबदबा रहा करता था, लेकिन राम मंदिर की हवा के रुख ने इसे भारतीय जनता पार्टी के लिए खास बना दिया है। पिछली बार इस सीट से हेमा मालिनी तीन लाख से अधिक मतों से जीती थीं। हेमा ने तब जयंत चौधरी को करारी शिकस्त देकर कमल खिलाया था लेकिन इस बार रालोद के नरेन्द्र सिंह को सपा और बसपा का साथ मिलने से मुकाबला कांटे का हो गया है। देखा जाए तो मथुरा सीट पर कुछ दिग्गज भाजपाई कांटे से कांटा निकालने का जतन भी कर रहे हैं।
मथुरा लोकसभा सीट आजादी के बाद पहले चुनाव से ही कश्मकश भरी रही है। पहले और दूसरे लोकसभा चुनाव में यहां से निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी लेकिन उसके बाद 1962 से लगातार तीन बार कांग्रेस पार्टी ने यहां से विजयी परचम फहराया। 1977 की सत्ता विरोधी लहर में भारतीय लोकदल ने कांग्रेस को पराजय का हलाहल पिलाकर एक नई पटकथा लिखने की कोशिश की। 1980 में जनता दल ने जहां विजयी जश्न मनाया वहीं 1984 में कांग्रेस ने एक बार फिर यहां जोरदार आमद दर्ज की। इस जीत के बाद कांग्रेस के लिए यहां से लम्बा वनवास शुरू हुआ। 1989 में जनता दल के प्रत्याशी ने जहां जीत दर्ज की वहीं इसके बाद 1991, 1996, 1998 और 1999 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने शानदार फतह हासिल कर इसे केसरिया का गढ़ बना दिया। भाजपा के चौधरी तेजवीर सिंह लगातार तीन बार यहां से चुनाव जीते। 2004 में मानवेन्द्र सिंह ने जहां कांग्रेस की वापसी कराई वहीं 2009 के चुनाव में कमल दल से यारी कर रालोद के जयंत चौधरी ने पाला फतह किया। 2014 में चली मोदी लहर में हेमा मालिनी ने जयंत चौधरी के पैर इस कदर उखाड़े कि उनकी हिम्मत ही दगा दे गई।
मथुरा सीट का जहां तक सवाल है पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इस सीट पर जाट और मुस्लिम वोटरों का वर्चस्व रहा है। 2014 में जाट और मुस्लिम वोटरों के अलग होने का नुकसान ही रालोद को भुगतना पड़ा था। बीते चुनाव में जाटों ने एकमुश्त भाजपा के पक्ष में मतदान कर रालोद को ठेंगा दिखाया था। मथुरा लोकसभा में कुल पांच विधान सभा सीटें आती हैं, इनमें छाता, मांट, गोवर्धन, मथुरा और बलदेव विधानसभा सीटें शामिल हैं। 2017 के विधानसभा चुनावों में यहां मांट सीट पर बहुजन समाज पार्टी को जीत मिली थी, जबकि बाकी सीटों पर केसरिया परचम फहरा था। मथुरा लोकसभा सीट पर जो एक बात हेमा मालिनी के पक्ष में है, वह है इनकी साफ-सुथरी छवि। नरेन्द्र सिंह बेशक स्थानीय हों लेकिन मतदाता हेमा की छवि को उनसे बेहतर मान रहा है। अगर संसद में मथुरा की आवाज उठाने की बात करें तो हेमा मालिनी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। हेमा मालिनी ने अपने संसदीय कोटे से क्षेत्र के विकास के लिए कुल  90 फीसदी राशि खर्च की है। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार को धार देते हुए मैं भी चौकीदार हूं अभियान शुरू किया है लेकिन मथुरा में भाजपाइयों की सुस्ती केसरिया रंग फीका करती दिख रही है।
मथुरा में जातीय समीकरणों की बात की जाये तो भी इस बार की हवा भाजपा के पक्ष में बहती नहीं दिख रही। हम जानते हैं कि समाज के विकास क्रम में जातियों का जन्म पेशों के बाद हुआ है और आज के हालात में पहले विद्यमान वर्ण व्यवस्था को जातीय आधार मानकर देखा, समझा और जांचा नहीं जा सकता। यही हाल वंश परम्पराओं और उनसे जन्मे परिवारों का भी है, जिनमें निरन्तर टूटन की प्रक्रिया जारी है और उसे समाप्त करना सम्भव नहीं हो पा रहा। नरेन्द्र सिंह की राह का रोड़ा इनके भाई कुंवर मानवेन्द्र सिंह बन चुके हैं। आज के हालातों पर गौर करें तो मथुरा में बिजली, पानी, खाद, गैस, गरीबी, महंगाई, डीजल-पेट्रोल, बेरोजगारी, उद्योग, कृषि, शिक्षा सब हाशिये पर हैं। मथुरा में पिछले पांच साल में जिन समस्याओं का ढिंढोरा पीटा गया, आज उन पर भयानक चुप्पी है। यमुना शुद्धिकरण का मुद्दा भी भाजपा के गले की फांस बन सकता है।


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