Tuesday 18 October 2016

नाकाबिल पैरों बावजूद रवीन्द्र पाण्डेय का कमाल

कार से टोल बैरियरों पर बिना रुके भरते हैं फर्राटा
राजस्थान के उदयपुर शहर के रवीन्द्र पाण्डेय के जीवन में बचपन में बदकिस्मती ने दरवाजा खटखटाया और उनके पैर लकवाग्रस्त हो गए लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। कुदरत की मंशा बदलने के लिए उन्होंने विपरीत हालात से संघर्ष शुरू कर दिया। अब रवीन्द्र एक विशेष मशीन के आविष्कारक हैं जिसका उन्हें पेटेंट भी हासिल है। अब वे फर्राटे से कार चलाते हैं जिससे किसी टोल बैरियर पर टैक्स नहीं वसूला जा सकता। इसके अलावा उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स में भी दर्ज है। यह सब उन्होंने अपने बलबूते हासिल किया है।    
रवीन्द्र पाण्डेय बताते हैं कि जब मैं करीब 10 साल का था, सामान्य बच्चों की तरह खेलता-कूदता था। अचानक मुझे बुखार आया। मुझे इंजेक्शन लगाए गए और इसी दौरान मुझे पैरालिसिस हो गया। इलाज चला और धीरे-धीरे सहारे के साथ चलने-फिरने लायक हो गया। वक्त ने बड़ा झटका दे दिया, दौड़ तो नहीं सकता था लेकिन सहारे के साथ धीरे-धीरे टहलते हुए ही जिंदगी की गाड़ी को पटरी पर चलाना था। कठिनाइयों के बावजूद पढ़ाई जारी रखी। साइंस विषयों के साथ हायर सेकेंडरी की परीक्षा पास की। साइंस और तकनीक में रुचि थी इसलिए आईटीआई में ड्रॉफ्ट्समैन के ट्रेड में डिप्लोमा कर लिया। इसके बाद वेदांता ग्रुप की कम्पनी हिन्दुस्तान जिंक लिमिटेड में नौकरी भी मिल गई।
जिंक की अंडरग्राउंड खदानों के लिए माइनिंग प्लानिंग के नक्शे बनाने और जरूरत के मुताबिक मशीनों को डिजाइन करने वाले रवीन्द्र को आने-जाने में परेशानी होती थी, इसके लिए उन्होंने एक कार खरीदी और उसे चलाना भी सीख लिया लेकिन पैरों के सामान्य रूप से काम न करने के कारण ड्राइविंग में परेशानी होती थी। वे कहते हैं कि परेशानी मेरी थी सो उससे छुटकारा भी मैं अपनी कोशिशों से ही पा सकता था।
मशीनों की डिजाइनें बनाने में जुटे रहने वाले रवीन्द्र ने अपनी गाड़ी के लिए भी एक ऐसी मशीन बनाने की ठान ली जो उनकी जरूरत के मुताबिक हो यानी ऐसी मशीन जो उनके पैरों का काम कर सके। वे इसके लिए जुट गए। काफी कोशिशों के बाद वे एक ऐसी डिवाइस बनाने में कामयाब हुए जो कार के मैकेनिज्म के साथ फिट हो सकती थी और उनकी जरूरतें पूरी कर सकती थी। कार के लिए डिवाइस तो बन गई लेकिन इसके उपयोग के लिए आरटीओ ने इजाजत नहीं दी। इसके उपयोग के लिए सरकार की ओर से न तो कोई तकनीकी परीक्षण किया गया था, न ही कोई एप्रूवल था। पुणे में स्थित आटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन ऑफ इंडिया को इस डिवाइस के एप्रूवल के लिए भेजा गया। देश भर में इस मशीन के काम करने की क्षमता के परीक्षण के लिए रिसर्च की गई। इस रिसर्च का व्यय केंद्र सरकार के साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट ने उठाया। एक तरफ जहां रवीन्द्र की बनाई हुई मशीन पर सरकार की रिसर्च चल रही थी वहीं दूसरी तरफ उन्होंने इस मशीन के पेटेंट के लिए आवेदन कर दिया। उन्हें जल्द ही इसका पेटेंट हासिल भी हो गया। उधर साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट ने भी उनकी डिवाइस को हरी झंडी दे दी।
जब सरकारी इजाजत मिल गई और रवीन्द्र को उनके आविष्कार का पेटेंट भी मिल गया तो वे बेफिक्र हुए और लम्बी ड्राइव पर उदयपुर से सोमनाथ (गुजरात) निकल पड़े। इस सफर में उनको रास्ते में कई स्थानों पर टोल देना पड़ा जो काफी आर्थिक बोझ बढ़ाने वाला था। इस सफर ने उनको दिव्यांगों के लिए बने विशेष वाहनों को टोल से छूट दिलाने के लिए संघर्ष के लिए प्रेरित किया। उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय और भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को पत्र लिखे। उनके पत्र पर शुरुआत में तो कुछ नहीं हुआ लेकिन वे कोशिशें जारी रखते हुए चिट्ठियों पर चिट्ठियां लिखते रहे। करीब एक साल तक लगातार मशक्कत करने के बाद उनके प्रयास रंग लाए और आठ जून, 2016 को भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने एक अधिसूचना जारी करके दिव्यांगों के लिए बने विशेष वाहनों को टोल फ्री करने की अधिसूचना जारी कर दी। प्राधिकरण ने सभी टोल बैरियरों पर इसके बारे में सूचना लिखने के निर्देश दिए। इन वाहनों से टैक्स वसूली पर टोल संचालकों पर कार्रवाई का भी नियम बनाया गया है।
लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज कीर्तिमान
रवीन्द्र पाण्डेय ने दिव्यांगों के लिए ऐसी डिवाइस बनाई जिससे कार सिर्फ हाथों के उपयोग से ड्राइव हो सकती है। उन्होंने जब इस तरह की कार से 70 हजार किलोमीटर की ड्राइव पूरी कर ली तो लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स ने उनका यह कीर्तिमान नेशनल रिकॉर्ड में शामिल कर लिया। खुद खास डिवाइस बनाकर हजारों किलोमीटर कार चलाने का उनका यह रिकॉर्ड है। उन्हें 2011 में राजस्थान सरकार ने निःशक्तजन कल्याण के लिए उल्लेखनीय कार्य करने पर राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया। 

रवीन्द्र के परिवार में उनकी मां, पत्नी, एक बेटा और एक बेटी है। 52 वर्षीय रवीन्द्र पाण्डेय ने कभी अपनी कमजोरी को अपनी मजबूरी नहीं बनने दिया। वे परिवार की गाड़ी तो दिव्यांग होने के बावजूद आम लोगों की तरह चला ही रहे हैं, सड़कों पर अपनी खास गाड़ी भी पूरे आत्मविश्वास के साथ दौड़ा रहे हैं। उनका परिवार उन पर गर्व करता है। रवीन्द्र की कहानी कुदरत के दिए जख्मों को अभिशाप मान लेने वालों को रास्ता दिखाकर प्रेरित करने वाली है।

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