Tuesday 2 June 2015

सेहत से खिलवाड़

मुल्क में मिलावटखोरी अभिशाप बनती जा रही है। खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता पर बातें तो बहुत होती हैं लेकिन हमारी हुकूमतें उद्योगपतियों को खुश रखने की मंशा के चलते कभी भी ऐसे मसलों पर कठोर कार्रवाई से बचती हैं। सरकार केन्द्र की हो या राज्यों की, दोनों ही स्तर पर खाद्य पदार्थों के मामले में अनदेखी की जाती है। इस समय देश में चर्चित नूडल ब्रांड मैगी की गुणवत्ता को लेकर बवाल मचा हुआ है। अभी तक लिए गये नमूनों में मैगी के नूडल में सीमा से 17 गुना ज्यादा सीसा और मोनो सोडियम ग्लूटामेट पाया गया है जोकि स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। मैगी ही नहीं मुल्क में कम से कम 80 हजार पैकेट-बंद खाद्य पदार्थों की बिक्री होती है। इन खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता कैसी है, इसका हमारे पास कोई मानक नहीं है। सवा करोड़ आबादी वाले इस देश में खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता को जांचने के लिए महज तीन हजार लोग ही हैं, ऐसे में सही काम की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आजादी के 68 साल बाद भी देश के कई राज्यों में मिलावट की जांच के लिए प्रयोगशालाएं न होना क्या चिन्ता की बात नहीं है। मैगी को लेकर केन्द्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान  का यह कहना कि सरकार मैगी के मामले पर सीधी कार्रवाई तब तक नहीं कर सकती, जब तक जनता की तरफ से उसके पास कोई शिकायत नहीं की जाती। मतलब साफ है कि हमारी सरकार ऐसे मामलों पर न केवल उदासीन है बल्कि मिलावटखोरी रोकने को बने कानून भी बेहद लचर हैं। मीडिया और सोशल मीडिया के बढ़ते दबाव से उनींदी सरकार जागी तो है लेकिन देश के विभिन्न राज्यों से इकट्ठा किए गए मैगी नूडल्स के नमूनों का परीक्षण कैसे होगा, यह बड़ा सवाल है। सरकार का यह कहना कि यदि मैगी के विज्ञापन गुमराह करने वाले पाए जाते हैं तो मैगी ब्रांड अम्बेसडरों पर भी कार्रवाई होगी, कुछ हास्यास्पद बात लगती है। देश में बिकने वाले खाद्य और पेय पदार्थों की गुणवत्ता को लेकर उच्चतम न्यायालय भी कई बार केन्द्र व राज्य सरकारों को लताड़ चुका है। मिलावटखोरों को उम्रकैद की सजा तक का प्रावधान है लेकिन उद्योगपतियों की जेब पर निगाह गड़ाये बैठी हमारी हुकूमतें जन स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे पर चींटी की चाल चलने को मजबूर हैं। बेहतर तो यह होना चाहिए कि देश में खाद्य पदार्थों को बनाने और बेचने वाली हर कम्पनी और प्रत्येक उत्पादक को तय मानक पूरे करने की बाध्यता हो, पर ऐसा नहीं हो रहा। हमारी हुकूमतें अमेरिका और यूरोप से भी कोई नसीहत लेने को तैयार नहीं हैं। वहां खाद्य पदार्थों में मिलावट पर सम्बद्ध कम्पनी और उत्पादक पर त्वरित रोक लगाने तथा कड़ी सजा का प्रावधान है, लिहाजा कानून के डर से वहां बड़ी से बड़ी कम्पनियां भी अपने उत्पादों की गुणवत्ता को लेकर सतर्क रहती हैं। वहां के लोग खान-पान को लेकर भी जागरूक हैं जबकि हमारे यहां खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता परखने की बजाय उसकी कीमत पहले पूछी जाती है। नियम-कायदों में खामियों का फायदा उठाती बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियों पर समय रहते नकेल नहीं कसी गई तो सच मानिये देश की आवाम अपनी सेहत तो खराब करेगी ही मोदी सरकार का स्वच्छ और स्वस्थ भारत का सपना भी चूर-चूर हो जायेगा।

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