Monday 24 November 2014

आस्था से अर्थ बनाने वाले लोग

कबीर दास उच्च स्तर के फक्कड़ संत थे। वह धन-वैभव के मोह से बहुत ऊपर उठ चुके थे। फक्कड़ता ही उनकी पूंजी थी। यही उनकी विशेषता और पहचान थी। वह भौतिकता के पीछे नहीं भागे। उनकी ऐसी कोई चाहत नहीं थी। इसलिए भयमुक्त थे। जो अच्छा लगा, वह कह दिया। वह न हिंदुओं से डरे, न मुसलमानों से। इस संत का पराक्रम देखिए, किसी कट्टरपंथी ने उनका विरोध नहीं किया। वह कट्टरता की आलोचना कर रहे थे, फिर भी सम्मानित बने रहे।
‘चाह गई चिंता मिटी
मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ न चाहिए
वही शाहंशाह।’
कबीर की यही कसौटी थी। उन्हें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए था। इसलिए वह किसी शाह या राजा से बड़े थे। क्या हरियाणा के रामपाल में कबीरदास का एक भी लक्षण देखा जा सकता है? वह अपने को कबीर पंथी कहते हैं, अवतार बताते हैं। लेकिन कबीर से उनकी तुलना किसी अपराध से कम नहीं। कबीर तो कहते हैं-‘ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया।’
इस पर अविश्वास का कोई कारण नहीं कि रामपाल की चदरिया कैसी है। इसमें आरोपों के गहरे दाग हैं। आश्रम के नाम पर अधिक से अधिक जमीन पर कब्जा जमाने की आकांक्षा है। इस लालसा की कोई सीमा नहीं। आधुनिक आश्रम बनवाने की बड़ी चाहत है। हथियारों का जखीरा है। कमांडो की टुकड़ी है। वह देश की संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती देने का अपने को अधिकारी मानते हैं। क्या इस तरह देश की व्यवस्था चल सकती है। उन्होंने जहां-जहां आश्रम स्थापित किया, वहीं-वहीं विवाद हुआ। विवाद भी सामान्य नहीं। कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। उनके साथ अभियुक्त बने एक व्यक्ति ने अदालत के समन का सम्मान किया। वह पेश हुए। जमानत मिल गई। क्या रामपाल खुद ऐसा उदाहरण पेश नहीं कर सकते थे?
लाखों लोगों को परेशानी उठानी पड़ी। कुछ ही समय पहले वहां नई सरकार बनी है। उसे इस मामले में पूरी ऊर्जा लगाने को बाध्य होना पड़ा। यह स्थिति रामपाल के कारण उत्पन्न हुई। रामपाल पर 2006 में अभियोग लगा था। तब रोहतक के करौंधा गांव में वह भव्य और विशाल आश्रम का निर्माण करा रहे थे। करौंधा के ग्रामीण इसका विरोध कर रहे थे। आरोप है कि विरोध कर रही भीड़ पर आश्रम से गोली चलाई गई, जिसमें एक युवक की मौत हो गई। रामलाल सहित उनके संैतीस सहयोगियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ, हिंसक विवाद यहीं समाप्त नहीं हुआ। वर्षों तक विवाद चला। 2013 में फिर गोलीबारी की गयी। इसमें तीन ग्रामीण मारे गए। अंतत: रामपाल को यहां का आश्रम खाली करना पड़ा। इसके बाद उन्होंने बरवाला में आश्रम बनाया। यहां भी लगातार विवाद चलता रहा। न्यायपालिका ने अपने दायित्व का पूरी संवैधानिक मर्यादा से निर्वाह किया। हत्या के मामले में पहले जिला न्यायालय में मुकदमा दर्ज हुआ था। लेकिन वहां रामपाल के समर्थकों ने धाबा बोल दिया। इसके बाद मुकदमा उच्च न्यायालय ने अपने अधिकार में लिया था। यहां भी उच्च न्यायालय ने रामपाल के बीमार होने के तर्क पर संवेदना के साथ विचार किया। उन्हें प्रारंभ में निजी पेशी से छूट दी गई। इसकी मियाद भी पूरी हो गई थी।
उच्च न्यायालय ने उन्हें पेश होने को कहा। एक बार फिर उनके समर्थक उच्च न्यायालय में हंगामा करने पहुंच गए। उन्होंने वकीलों से हाथापाई की। जजों के खिलाफ नारेबाजी की। दो दिन की भारी मशक्कत के बाद हरियाणा में सतलोक आश्रम के मुखिया रामपाल गिरफ्तार हुए। पहला दिन हरियाणा सरकार के लिए अधिक मुसीबत का था। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पर आरोप लगे। कहा गया कि उनकी सरकार रामपाल को बचा रही है। आलोचकों का तर्क था कि पुलिस को उनके आश्रम में घुसकर गिरफ्तारी को अंजाम देना चाहिए था। इसी दिन पुलिस ने कई पत्रकारों को बेरहमी से पीटा। आश्रम के भीतर से किए गए हमले से अनेक पुलिस कर्मी घायल हुए। यह सब निंदनीय और दुर्भाग्यपूर्ण था। इसका आरोप भी सरकार पर लगा। लेकिन यह नहीं माना जा सकता कि पत्रकारों पर हमले का आदेश मुख्यमंत्री की ओर से आया था।
अफरा-तफरी के माहौल में वहां मौजूद पुलिस अधिकारियों ने ऐसा निर्णय किया होगा। फिर भी इन सबको लेकर सरकार की तीखी आलोचना की गई। इसे ऐसा रूप दिया गया जैसे पूरी समस्या मनोहर लाल खट्टर के शपथ लेने के बाद शुरू हुई, जिसका वह समाधान नहीं कर सके। दूसरे दिन की स्थिति अलग थी। लगा कि सरकार ने बड़ी समझदारी से रणनीति बनाई थी। नुकसान को यथासंभव न्यूनतम रखने का प्रयास किया गया। दूसरे दिन आश्रम से भीड़ को निकालने पर सर्वाधिक जोर दिया गया। हजारों की संख्या में लोगों को बाहर निकाला गया। यदि पहले दिन सुरक्षा बाल आश्रम पर धावा बोल देते, तो भीड़ के कारण धन-जन का बड़ा नुकसान हो सकता था। लोगों का जीवन बचाने पर सर्वाधिक ध्यान रखा गया। इसमें सफलता भी प्राप्त हुई। आश्रम के भीतर जिन चार लोगों की मौत हुई, उसका कारण पुलिस की कार्रवाई नहीं थी। आश्रम के भीतर से भीड़ निकलने के साथ ही उनकी कलई भी खुलने लगी थी। लोग बता रहे थे कि उन्हें जबरदस्ती रोका गया था। रामपाल उन्हें पुलिस बल से बचाव के लिए ढाल बनाए हुए थे। इनमें से कई बीमार बच्चों व महिलाओं को इलाज तक नहीं मिल रहा था। क्या रामपाल को खुद सामने आकर लोगों को मुसीबत से बचाना नहीं चाहिए था? उनकी जिद में कितने लोग घायल हुए। पूरे अभियान में आर्थिक नुकसान भी हुआ। अनुयायियों को जोखिम में डालकर वह अपने को बचाने का प्रयास कर रहे थे। क्या यह संत का लक्षण है?
बताया जा रहा है कि रामपाल इतने बीमार नहीं थे, जो न्यायालय तक जा न सके। फिर बार-बार वह गलतबयानी का सहारा क्यों ले रहे थे। क्या किसी संत को ऐसा आचरण करना चाहिए? वह अपने को निर्दोष मानते हैं तो न्यायालय में पेश होने से बचना क्यों चाहते थे। उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज है। पेशी से बचकर वह आरोपमुक्त नहीं हो सकते। इसके लिए तो न्यायिक प्रक्रिया का पालन करना पड़ेगा। भीड़ के बल पर कोई न्यायिक प्रक्रिया से बच नहीं सकता।
(लेखक डॉ. दिलीप अग्निहोत्री चर्चित स्तंभकार हैं)

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