श्रीप्रकाश शुक्ला
सिर्फ सपने
देखने से मंजिल नहीं मिलती। मंजिल तक पहुंचने के लिए अथक मेहनत की जरूरत होती है।
जूडो में देश की पहली अर्जुन अवार्डी पूनम चोपड़ा का रुझान तो बचपन में क्रिकेट से
था लेकिन उन्होंने जूडो खेल को ही अपना हमसफर मानकर दिन-रात एक कर दिए। पूनम
चोपड़ा ने 1993 में हुई एशियन चैम्पियनशिप में देश को
पहली बार जूडो में रजत पदक दिलाया उसके बाद 1994 में एशियन
गेम्स में भी चांदी का तमगा जीता। पूनम लगभग 35 बार विदेशी धरती पर भारत का
प्रतिनिधित्व करने वाली देश की एकमात्र जूडोका हैं। पूनम को भारत की झोली में
एक-दो नहीं बल्कि 20 पदक डालने का श्रेय हासिल है। यह सब भारत की
इस बेटी की जीवटता, जोश एवं जज्बे का कमाल है। देश का मान बढ़ाने वाली पूनम को
अपने साथ हुए सलूक का मलाल तो है लेकिन वह आज भी मुश्किल में पड़ी बेटियों में जीत
की चाह पैदा करने को दिन-रात एक कर रही हैं।
पूनम चोपड़ा ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने
जिन्दगी में बहुत मुश्किल फैसले लिए और मुश्किल दौर से दो-चार भी हुईं। पूनम ने परिवार
के गुस्से की परवाह न करते हुए जहां जूडो को अपनाया वहीं सफलता का परचम भी फहराया।
एशियन खेलों में जूडो का पहला पदक दिलाने वाली इस जांबाज बेटी को अर्जुन पुरस्कार
तो मिला लेकिन एक अदद नौकरी की तलाश उसे आज भी है। खिलाड़ी और चोट एक-दूसरे के
पूरक हैं। पूनम को 2005 में ऐसी चोट लगी कि उन्हें लम्बे समय के लिए खेल से बाहर
होना पड़ा, पर जीवटता की धनी पूनम दस साल ब्रेक के बाद 2015 में जब जूडो के
मैदान में उतरीं तो उसी पुराने अंदाज में। पूनम का इस खेल के प्रति लगाव घटने की
बजाय और बढ़ गया। अर्जुन अवार्डी पूनम फिलहाल द्रोण की भूमिका में जूडो खिलाड़ियों
को तराश कर उन्हें अर्जुन बनाने में लगी हुई हैं।
चीन के मकाऊ शहर में हुई एशियन चैम्पियनशिप
के 56 किलो भार वर्ग में जीते रजत पदक को पूनम चोपड़ा अपना सबसे बड़ा खुशी
का लम्हा मानती हैं। हो भी क्यों न आखिर यह देश के लिए जीता गया उनका पहला मेडल जो
था। वह बताती हैं कि चीन में जब उनको पहला मेडल मिला तो सम्मान के लिए देश का झंडा
नहीं था, इसके लिए करीब आधे घण्टे तक सम्मान समारोह रोकना पड़ा। भारतीय दूतावास से जब
भारतीय तिरंगा मंगवाया गया उसके बाद ही उन्हें पदक के साथ सम्मानित किया गया। इसी
दौरान उनके कोच को इतनी ज्यादा खुशी हुई कि वह बंद कमरे में घण्टों खुशी के आंसू बहाते
रहे। यही वह पल था जिसे वह ताउम्र नहीं भूलना चाहतीं।
पूनम कहती हैं कि 2005 का
साल भी उनके करियर में दर्द भरी याद बन गया। उस समय खेल के दौरान उसके घुटने में
चोट लगी और उसे घुटने का आपरेशन करवाना पड़ा। 10 साल के लम्बे
विराम के बाद वर्ष 2015 में वह फिर से जूडो के मैदान में उतर पाईं। यह
सफर मेरे लिए काफी मुश्किल भरा रहा क्योंकि मैं 10 साल जूडो नहीं खेल सकी। पूनम
कहती हैं कि मैंने हर परिस्थिति का हिम्मत से सामना किया। बड़ा मुकाम पाने के लिए
जीतोड़ मेहनत की। पूनम चोपड़ा बताती हैं कि उन्होंने वर्ष 1984
में खेल में कदम रखा था। वह पहले क्रिकेट में अपना करियर बनाना चाहती थी। मैं आरम्भ
में क्रिकेट खेलती थी। सब जूनियर में भारतीय टीम की खिलाड़ी भी रही लेकिन बाद में
जूडो से जुड़ गई। हमारे माता-पिता और भाई को मेरा जूडो खेलना रास नहीं आ रहा था
लेकिन मुझ पर खेलों में मुकाम हासिल करने का भूत सवार था। पूनम बताती हैं कि
जैसे-जैसे मुझे सफलताएं मिलती गईं लोगों का मलाल भी कम होता गया। बड़ा मुकाम पाने
पर उनके माता-पिता ने भी आशीर्वाद दिया और खुशी जताई। लड़कियों को खेलों में आने का
विरोध करने वाले भी आखिर बधाई देने लगे।
देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला
जूडो में पहचान दिलवाने वाली अर्जुन अवार्डी पूनम चोपड़ा को तीन दशक तक लगातार
खेलने के बावजूद आज तक सरकारी नौकरी का इंतजार है। सरकारें आईं और गईं लेकिन पूनम की
उपलब्धियों से नेताओं का दिल नहीं पसीजा। पूनम देश की पहली महिला जूड़ो खिलाड़ी
हैं जिन्हें 1997 में जूडो के लिए अर्जुन अवार्ड प्रदान किया
गया। 1974 में दिल्ली के व्यवसायी दर्शन लाल व एयर फोर्स में कार्यरत मां के
घर जन्मी इस बेटी ने साल 1988 में अपनी बड़ी बहन मोनिका शौकीन को
देखते हुए जूडो में कदम रखा था। पाकिस्तान से भारत आए दर्शनलाल के परिवार में पूनम
दूसरे नम्बर की बेटी हैं। पूनम की मां एयरफोर्स से रिटायर्ड हैं। पूनम की बड़ी बहन
मोनिका शौकीन जूडो की नेशनल खिलाड़ी रह चुकी हैं। पूनम ने दिल्ली की ओर खेलते हुए
राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में पहली बार रजत पदक हासिल किया था। 1989
में पूनम ने हरियाणा से खेलने का निश्चय किया तब से लेकर आज तक वह हरियाणा को ही
अपनी कर्मस्थली मानती हैं। जूडो को ओलम्पिक खेलो में 1966 में पहली बार
मान्यता मिली। 1997 में पूनम विश्व जूडो रैंकिंग में सातवें स्थान
पर पहुंची। 2000 में उन्होंने बैंकाक एशियाई खेलों तो 2004
में विश्व जूडो चैम्पियनशिप में देश का प्रतिनिधित्व किया। पूनम ने साल 2004
में नेशनल गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने के बाद चोट की वजह से खेलना छोड़ दिया।
10 साल चोट से जूझने के बाद इस
जुझारू महिला खिलाड़ी ने 2015 में तेलगांना में सम्पन्न हुई राष्ट्रीय
सीनियन जूडो चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक हासिल किया तो 2016 में शिलांग में
सम्पन्न हुए सीनियर नेशनल जूडो खेलों में रजत पदक हासिल किया। पूनम चोपड़ा कहती
हैं कि उन्होंने देश का सम्मान ऊंचा रखने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी और आज भी
उनकी इच्छा है कि देश के लिए खेलूं और देश के लिए जान लगा दूं। सरकारी उपेक्षा पर
पूनम कहती हैं कि उन्होंने अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है। केरल में सम्पन्न हुए नेशनल
गेम्स की जूडो स्पर्धा में मणिपुर की खिलाड़ी को हराते हुए कांस्य पदक हासिल करने
वाली पूनम का कहना है कि खेलों में वापसी कर वे बेहद खुश हैं। वह ओलम्पिक में भाग
लेकर पदक जीतने का अपना सपना साकार करना चाहती हैं। खेल और खिलाड़ियों को तमाम
सुविधाएं देने का दम भरने वाली सरकारों के हर दरवाजे पर पूनम ने दस्तक दी लेकिन उसे
सिर्फ आश्वासन ही मिला, मदद नहीं। पूनम को मध्य प्रदेश सरकार ने भी कुछ समय के लिए
नौकरी दी लेकिन एक खिलाड़ी की गलत शिकायत पर उसे हटा दिया गया। अब निराश-हताश पूनम
को खट्टर सरकार की नई खेल नीति से बेहद उम्मीद है। पूनम चोपड़ा के सिर से पिता का
साया उठने के बाद मां भी बीमार रहने लगीं। बहन और भाई की जिम्मेदारी भी पूनम के
कंधों पर आ पड़ी। प्राइवेट नौकरी करते हुये पूनम ने अपनी छोटी बहन और भाई की शादी
की लेकिन वह खुद शादी नहीं कर पाईं। पूनम कहती हैं कि अब उम्र ज्यादा हो गई है
लिहाजा वह शादी नहीं नौकरी के बारे में चिन्तित हैं।
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