श्रीप्रकाश
शुक्ला
कटु वचन किसी के भी हों मर्माहत और आहत करते ही
हैं। अपनों के कटु वचनों को कोई तो अभिशाप मानकर स्वयं को होम कर देता है तो कोई
इसे चुनौती के रूप में लेकर वह कर गुजरता है जिसे लोग असम्भव मान लेते हैं।
पद्म-विभूषण कुलाधिपति जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी भी कुछ ऐसे ही हैं। बचपन
में ही अपनी आंखें खो देने वाले संतश्री स्वामी रामभद्राचार्य ने अब तक एक-दो नहीं
बल्कि 156 पुस्तकें लिखी हैं। श्रेष्ठ संत-महात्माओं की श्रेणी में शिखर पर आरूढ़ स्वामी
रामभद्राचार्य जी को किसी और से नहीं बल्कि अपने पिता से अपशकुन शब्द की ऐसी चोट
मिली जिसके चलते वह अपने बड़े भाई की शादी में नहीं जा सके। आज स्वामी
रामभद्राचार्य जी सिर्फ हजारों हजार दिव्यांगों के ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव
समाज के दिग्दर्शक हैं। मकर संक्रांति के पावन पर्व पर 14 जनवरी, रविवार को गाजियाबाद
के रामलीला मैदान में अपना 69वां जन्मदिन मनाते हुए संतश्री ने मोदी सरकार के तीन मंत्रियों
वी.के. सिंह, गिरिराज सिंह और अश्वनी चौबे से दोटूक शब्दों में कहा कि अब देश की
सल्तनत आपके हाथों है लिहाजा अयोध्या में श्रीराम मंदिर तो बने ही कश्मीर की
रोज-रोज की पंगेबाजी-पत्थरबाजी भी बंद हो।

स्वामी रामभद्राचार्य जी के जन्मदिन पर तीन
पुस्तकों का भी विमोचन हुआ। इनमें दो पुस्तकें स्वयं स्वामी जी ने तो एक पुस्तक
सासाराम बिहार निवासी डा. रीभा तिवारी द्वारा लिखी गई है। दिव्यांगता एक वरदान
पुस्तक में 55 ऐसे दिव्यांगों की अकल्पनीय इच्छाशक्ति को उजागर किया गया है
जिन्होंने अपने कौशल से दुनिया भर में भारत का नाम गौरवान्वित किया है। स्वामी
रामभद्राचार्य जी ने दिव्यांगता एक वरदान पुस्तक की लेखिका डा. रीभा तिवारी की
मुक्तकंठ से तारीफ करते हुए कहा कि आपने सिर्फ कुछ पन्नें नहीं बल्कि सही मायने
में एक ग्रंथ लिखा है जिसे पढ़कर दिव्यांगों को अपशकुन मानने वाले लोगों की जरूर
आंखें खुलेंगी। डा. रीभा तिवारी स्वयं बचपन में अपना एक पैर खो चुकी हैं। इस अवसर
पर तीनों केन्द्रीय मंत्रियों वी.के. सिंह, गिरिराज सिंह और अश्वनी चौबे ने भी दिव्यांगता
एक वरदान पुस्तक को श्रेष्ठ कृति निरूपित किया।
चित्रकूट की जहां तक बात है यह पावन धरती भगवान
श्रीराम के चलते कालांतर से हर हिन्दू के लिए तीर्थ-स्थल है। चित्रकूट आज एक ऐसे विलक्षण
संत की कर्मस्थली है, जहां देश भर के दिव्यांगों को स्वयं के पैरों पर खड़े होने
का सम्बल मिलता है। सच कहें तो स्वामी रामभद्राचार्य जी के प्रयत्नों की पराकाष्ठा
ने चित्रकूट की पावन भूमि को मानव सेवा का अभिनव तीर्थ बना दिया है। संत-महात्मा मन्दिरों-मठों
तक सीमित न रहें, वे समाज में निकलें और पीड़ित मानवता की सेवा को ही राघव सेवा मानकर
अपना सर्वस्व अर्पित करें, यही जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य का मूल मंत्र है। चित्रकूट
में देश का पहला विकलांग विश्वविद्यालय स्वामी रामभद्राचार्य जी की साधना का प्रतिबिम्ब
है। 26 जुलाई, 2001 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह द्वारा इसका उद्घाटन
किया गया था। आठ जनवरी, 2018 को देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने इस विश्वविद्यालय
को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने का आश्वासन दिया है। इस विश्वविद्यालय
की जहां तक बात है अब तक यहां अध्ययन करने वाले पांच हजार से अधिक दिव्यांग
छात्र-छात्राएं अपने पैरों पर खड़े हो चुके हैं।
जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी के प्रयासों से विश्वविद्यालय
में विकलांग विद्यार्थियों के लिए अधिकांश सुविधाएं निःशुल्क या फिर नाममात्र के
शुल्क पर उपलब्ध हैं। जगद्गुरु के तुलसी पीठ आश्रम में छात्राओं को छात्रावास
सुविधा मिली हुई है। इसके अतिरिक्त आश्रम परिसर में ही प्रज्ञाचक्षु (नेत्रहीन), मूक-बधिर एवं अस्थि विकलांग बच्चों
के लिए प्राथमिक पाठशाला से लेकर उच्च माध्यमिक स्तर तक विद्यालय भी चलता है। यहां
अध्ययनरत सभी बच्चों को आवास, भोजन, वस्त्र इत्यादि की सुविधाएं निःशुल्क मिलती
हैं। स्वामी रामभद्राचार्य कहते हैं कि विकलांग ही मेरे भगवान हैं। 68 साल पहले 14 जनवरी, 1950 को जौनपुर जिले के सुजानगंज तहसील के
शांडी खुर्द में एक कृषक ब्राह्मण परिवार में जन्में जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी को
जन्म के ठीक दो महीने बाद ही रोहुआ रोग के चलते अपनी आंखें खोनी पड़ी थीं। सात साल
की उम्र में ही सम्पूर्ण रामचरित मानस कंठस्थ करने स्वामी रामभद्राचार्य कहते हैं
कि जो ईश्वर की इच्छा थी सो हुआ। मेरी आंखों का रोग तो गया नहीं किन्तु मेरे भव
रोगों का निदान जरूर हो गया। स्वामी जी के बचपन का नाम गिरिधर था। बालपन में अपने
बाबा पंडित सूर्यबली मिश्र के सान्निध्य में रहकर बालक गिरिधर ने रामचरित मानस,
श्रीमद् भगवद्गीता को खेल-खेल में ही कंठस्थ कर लिया था।
समय के साथ गिरिधर की मेधा निखरती ही चली गई।
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से उन्होंने अपना शोध कार्य पूर्ण
किया। अध्ययन अवधि में कितने ही स्वर्ण पदकों ने उनके गले की शोभा बढ़ाई।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने गिरिधर की अनोखी प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें
संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त कर दिया लेकिन स्वामीजी
के जीवन का उद्देश्य तो और ही था। 19 नवम्बर, 1983 को तपोमूर्ति श्रीरामचरण दास जी महाराज फलाहारी से इन्होंने संन्यास
की दीक्षा ली और 1987 में तुलसी जयंती के दिन चित्रकूट में
तुलसी पीठ की स्थापना की। बचपन और युवावस्था में शारीरिक न्यूनता ने स्वामीजी के
सहज जीवन में कदम-कदम पर विपदाएं, बाधाएं पैदा कीं लेकिन इससे वे विचलित होने की
बजाय मजबूत होते गए। इन कष्टों की अनुभूति के चलते ही स्वामीजी दिव्यांगों के नर
नहीं बल्कि नारायण बन गए। कुलाधिपति जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी के प्रयासों से
चित्रकूट में संचालित विकलांग विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को साक्षर ही नहीं
स्वावलम्बी भी बनाया जा रहा है। यहां पढ़ने वाले सभी छात्रों के लिए कम्प्यूटर अनिवार्य
है। गुरुकुल परिवार की एक और श्रद्धा केन्द्र हैं डा. गीता मिश्र, जोकि स्वामी जी
की बड़ी बहन हैं। स्वामी रामभद्राचार्य के सपनों को साकार करने में इनका त्याग भी
अवर्णनीय है। स्वामी जी की छत्रछाया में रहने वाले सैकड़ों बालक-बालिकाएं जात-पात
के भेद से परे तालीम हासिल कर अपने सपनों को पंख लगा रहे हैं। विकलांग देव की सेवा
में लगे स्वामी रामभद्राचार्य कहते हैं भगवान की कोई जाति नहीं होती लिहाजा हम
ताउम्र इनकी सेवा करते रहने के साथ राष्ट्र कल्याण की बातें लिखते रहेंगे।
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