Friday, 27 October 2017

आओ हॉकी से अनुराग दिखाएं, खिलाड़ियों को गले लगाएं

  
भरोसा जगाती भारतीय हॉकी
 अब विश्व कप होगी अगली कसौटी
 श्रीप्रकाश शुक्ला
भारतीय हॉकी का इतिहास बड़ा ही रोचक रहा है। एक समय जहां भारत ने हॉकी की दुनिया पर राज किया वहीं हमने वह बुरा दौर भी देखा जब हम ओलम्पिक भी नहीं खेल सके। हाल ही भारतीय युवा तुर्कों ने बांग्लादेश में एशिया कप जीतकर अपने पुराने चावल होने का भान कराया है। भरोसा जगाती भारतीय हॉकी से नाउम्मीद हो चुके उसके मुरीदों में एक हलचल सी देखी जा रही है। फर्श से अर्श की तरफ जाती भारतीय हॉकी में बदलाव के जो लक्षण दिख रहे हैं, उसके कई कारण हैं। पिछले कुछ वर्षों में हॉकी इण्डिया ने भारतीय हॉकी के शिखर से फिसलने की पहेली को सुलझाने की जहां कोशिश की है वहीं  भारतीय खिलाड़ियों का हॉकी इंडिया लीग में विदेशी खिलाड़ियों के साथ खेलना, एक साथ एक ही ड्रेसिंग रूम में रहना तथा लगातार संवाद करना सबसे अहम है। हॉकी इंडिया लीग से हमारे खिलाड़ियों की झिझक खुली है तो पाश्चात्य हॉकी के तौर-तरीकों से रू-ब-रू होने के अवसर भी मिले हैं। चार क्वार्टर में खेले जाने वाली हॉकी इंडिया लीग में खेलने का लाभ भी खिलाड़ियों को मिला क्योंकि वर्तमान अंतरराष्ट्रीय हॉकी इसी तर्ज पर खेली जा रही है। हॉकी इंडिया लीग में नीलामी में मिलने वाले अकूत पैसे से खिलाड़ियों में अपने प्रति सम्मान का भाव भी पैदा हुआ है।
भारतीय हॉकी में ज्यादातर खिलाड़ी ग्रामीण बैकग्राउंड से आते हैं, ऐसा पहले भी था। देखा जाए तो हॉकी के जादूगर दद्दा ध्यानचंद के वक्त से ही भारतीय हॉकी की ताकत उसकी कलात्मकता रही है। कलात्मक हॉकी परम्परा को ध्यानचंद के भाई रूप सिंह, बेटे अशोक कुमार सिंह और हरबिंदर सिंह, मोहम्मद शाहिद, जफर इकबाल तथा उनके बाद धनराज पिल्लै, बलजीत सिंह ढिल्लो सरीखे खिलाड़ियों ने आगे बढ़ाया। इन सभी ने अपने जमाने में अपनी रफ्तार के साथ गेंद के चतुर डॉज से दुनिया भर की मजबूत से मजबूत रक्षापंक्ति को छकाया। अतीत पर नजर डालें तो के.पी.एस. गिल के जमाने में जिस तरह एक के बाद एक कोच बदले गये उसका सबसे बुरा असर यह हुआ कि भारत ने अपनी परम्परागत शैली छोड़कर बेजा प्रयोग शुरू कर दिए। इससे बेचारे खिलाड़ी इस उलझन में फंसे रहे कि अपनी एशियाई शैली पर काबिज रहें या फिर गोरों की दमखम वाली हिट हार्ड, रन फास्ट स्टाइल को अपना लें। इस गफलत में हमारी युवा हॉकी पीढ़ी अपना असली खेल ही भूल गई।  
रविवार 22 अक्टूबर की रात को ढाका में एशिया कप हॉकी चैम्पियनशिप में भारत ने जो खिताबी जीत हासिल की उसकी अहमियत इसलिए भी है कि भारत एक बार फिर इस खेल में विश्व पटल पर अपनी धमक कायम करने में कामयाब हो रहा है। पाकिस्तानी पराभव के बाद एशिया महाद्वीप में मलेशियाई टीम एक ताकत के रूप में उभरी है। फाइनल में मलेशिया से कड़ी चुनौती मिलने के बावजूद भारत दस साल बाद एशिया कप का खिताब जीतने में सफल हुआ। एशिया कप की जहां तक बात है भारत और पाकिस्तान ने इस कप पर तीन-तीन बार कब्जा जमाया है जबकि अब तक चार बार खिताबी जश्न मनाने वाली दक्षिण कोरियाई टीम तीसरे स्थान के लिए हुए मुकाबले में पाकिस्तान से हार गई। एशिया कप के मौजूदा संग्राम में भारतीय खिलाड़ी न केवल अच्छा खेले बल्कि अपराजेय भी रहे लेकिन भारत की मेजबानी में होने वाले विश्व कप के मद्देनजर इसे बड़ी कामयाबी मानने की भूल नहीं की जानी चाहिए। एशिया कप फतह करने वाली भारतीय हॉकी टीम में अभी भी निरंतरता की कमी है और शीर्ष टीमों की बराबरी के लिए खिलाड़ियों को इस पर काम करना होगा। टीम में अभी भी स्थिरता और सामंजस्य का अभाव है। दक्षिण कोरिया के खिलाफ 1-1 से बराबर खेलना और फाइनल में मलेशिया से 2-1 के मामूली अंतर से जीतना कई सवाल खड़े करता है। यह खुशी की बात है कि हमारे युवाओं ने अच्छी आक्रामक हॉकी खेली और कुछ अच्छे मैदानी गोल भी किए लेकिन टीम निरंतर एक जैसा प्रदर्शन नहीं कर पाई। आठ बार के ओलम्पिक चैम्पियन भारत ने एशिया कप में आक्रामक खेल के दम पर कुल 21 मैदानी गोल किए। कप्तान मनप्रीत सिंह के नेतृत्व क्षमता की भी तारीफ करनी होगी जिन्होंने साथी खिलाड़ियों का न केवल लगातार उत्साह बढ़ाया बल्कि रक्षापंक्ति को मजबूत करने की जिम्मेदारी खुद भी सम्हाली।
हॉकी एक तेज गति का खेल है और इसमें जीत के लिए रक्षात्मक होने के बजाय आक्रामक रुख अख्तियार करना हमेशा फायदेमंद होता है। भारतीय खिलाड़ियों ने पिछले कुछ सालों में अपने खेल के तौर-तरीके में काफी बदलाव किया है। रक्षात्मक खेलने की भारत की छवि जहां टूटी है वहीं प्रतिद्वंद्वी टीमों का गोलपोस्ट खटकाने का हौसला बढ़ा है। बांग्लादेश में मिली खिताबी जीत में भारतीय टीम का यह रुख साफ दिखा। खेल विश्लेषकों ने इस बदलाव को भारतीय टीम की ताकत के रूप में देखना शुरू कर दिया है। अगर हमारी हॉकी टीम रणनीति के स्तर पर मैदान में रक्षा और आक्रमण दोनों के संतुलित प्रयोग में महारत हासिल कर ले तो वह फिर से अंतरराष्ट्रीय हॉकी का चेहरा बन सकती है। पिछले कुछ सालों के दौरान भारतीय हॉकी टीम के प्रदर्शन में लगातार सुधार हुआ है और अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में देश भर की निगाहें इस पर लगी रहती हैं। सीनियर या फिर जूनियर टीमों ने कई अहम प्रतियोगिताओं में बाकी सशक्त मानी जाने वाली टीमों के मुकाबले काफी बेहतर प्रदर्शन किया और कई खिताबी जीत हासिल की हैं। हां, पेनाल्टी कार्नरों को गोल में तब्दील न कर पाने की हमारी कमजोरी यथावत है। भारतीय हॉकी टीम को यदि दुनिया फतह करनी है तो उसे अपनी इस कमजोरी हर हाल में दूर करना होगा। भारत को अब विश्व कप के महासंग्राम में अपने दर्शकों और अपने मैदानों में दुनिया की ताकतवर टीमों से लोहा लेना है ऐसे में उसका हर क्षेत्र में ताकतवर होना निहायत जरूरी है।   
देखा जाए तो हॉकी की दुनिया में लम्बे समय तक कोई बड़ी उपलब्धि हाथ नहीं आने और नतीजों की तालिका में कोई सम्मानजनक जगह नहीं मिल पाने की वजह से हॉकी मुरीदों में इस खेल के प्रति निराशा घर कर गई थी। हाल के वर्षों में भारतीय हॉकी ने जो ऊर्जा हासिल की है अगर उसे बनाए रखना और आगे बढ़ाना है तो देश भर में एक ही सिस्टम यानी शैली अपनाई जाए। खिलाड़ियों को शुरू से ही एस्ट्रोटर्फ पर हॉकी खेलने का मौका मुहैया हो तो मुल्क के पुराने उस्तादों को जूनियर और सीनियर नेशनल चैम्पियनशिप के बाद ऊर्जावान युवा पलटनें सौंपी जाएं जो ऊन्हें डॉज और फ्लिक में पारंगत कर सकें। परगट सिंह, मोहिन्दर पाल सिंह और माइकल किंडो सरीखे अपने जमाने के नामी फुलबैक युवाओं को रक्षापंक्ति की बारीकियां बता सकते हैं, तो अजित पाल सिंह, हरमीक सिंह, कर्नल बलबीर सिंह सरीखे पूर्व ओलम्पियन मध्य पंक्ति के खिलाड़ियों के साथ अपने अनुभव बांट सकते हैं। गोलरक्षक के रूप में आशीष बलाल और ए.बी. सुब्बैया बढ़िया गाइड साबित होंगे।
देखा जाए तो 2012 के बाद भारतीय हॉकी टीम ने कई सफलताएं हासिल की हैं। 2012 के लंदन ओलम्पिक में आखिरी पायदान पर रहने वाली भारतीय हॉकी टीम ने रियो ओलम्पिक में जबरदस्त प्रदर्शन दिखाया और टीम क्वार्टर फाइनल तक पहुंची। बेल्जियम से हार का सामना करने के बाद  भारतीय टीम भले ही पदक नहीं जीत पाई हो लेकिन उसने जिस तरह का खेल दिखाया उससे हर कोई हैरान था। गोलकीपर श्रीजेश की अगुआई में भारतीय हॉकी टीम से ऐसे शानदार प्रदर्शन की किसी को भी उम्मीद नहीं थी। रियो ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीम बेशक 36 साल बाद पदक से चूक गई लेकिन उसने एशियन चैम्पियंस ट्रॉफी के फाइनल मुकाबले में पाकिस्तान को 3-2 से हराकर देशवासियों को दिवाली का सबसे बड़ा तोहफा दिया था। हमारी सीनियर हॉकी टीम ने एशियन चैम्पियंस ट्रॉफी चूमी तो भारतीय जूनियर हॉकी टीम ने बेल्जियम को 2-1 से हराकर 15  साल बाद जूनियर विश्व कप जीता। इससे पहले 2001 में भारतीय जूनियर टीम ने खिताबी जश्न मनाया था।
भारतीय सीनियर हॉकी खिलाड़ियों ने जहां बांग्लादेश में अपनी ताकत और दमखम का जलवा दिखाया वहीं जूनियर खिलाड़ियों ने मलेशिया में खेले गये सुल्तान जौहर कप में अपना जौहर दिखाया। भारतीय जूनियर खिलाड़ियों ने पहले जापान फिर मेजबान मलेशिया को पराजय का पाठ पढ़ाया तो 25 अक्टूबर  बुधवार को अमेरिका पर 22-0 की धांसू जीत हासिल कर सबको हैरत में डाल दिया। इस एकतरफा मुकाबले में टीम इण्डिया के जांबाजों ने अमेरिकी टीम की एक नहीं चलने दी और मैच में गोलों की झड़ी लगा दी। इस मुकाबले में भारत की ओर से चार खिलाड़ियों विशाल अंतिल, दिलप्रीत सिंह, हरमनजीत सिंह और अभिषेक ने गोल की हैटट्रिक बनाई। हरमनजीत सिंह पांच गोल कर इस मुकाबले टॉप स्कोरर रहे। इस मैच में भारत की ओर से कुल 10 खिलाड़ियों ने गोल दागे। आस्ट्रेलिया से 4-3 से पराजय के बावजूद जूनियर खिलाड़ियों ने जोरदार खेल दिखाकर अपने स्वर्णिम भविष्य का संकेत दिया है।
भारतीय हॉकी इतिहास का सबसे स्वर्णिम समय मेजर ध्यानचंद के दौर को कहा जाता है। भारत की टीम ने 1928, 1932 और 1936 के ओलम्पिक में स्वर्णिम सफलता हासिल की। हॉकी के इतिहास में सबसे ज्यादा गोल लगाने का रिकॉर्ड भी ध्यानचंद के नाम है। दुनिया के हॉकी इतिहास में ध्यानचंद जैसा कोई खिलाड़ी अब तक न तो हुआ है और न शायद होगा भी। ध्यानचंद के बाद यदि किसी हॉकी खिलाड़ी ने अपनी मौजूदगी से हॉकी को अमर किया है तो वह हैं बलबीर सिंह सीनियर। बलबीर सिंह सीनियर को भारतीय हॉकी के अब तक के सबसे बेहतरीन सेण्टर फॉरवर्ड खिलाड़ी के तौर पर याद किया जाता है। बलबीर सिंह सीनियर भारत की तरफ से केवल दूसरे ऐसे हॉकी खिलाड़ी हैं जिन्होंने ओलम्पिक में खेलते हुए भारत के लिए लगातार तीन बार गोल्ड मैडल जीते हैं। 1948 लंदन ओलम्पिक, 1952 के हेलसिंकी ओलम्पिक तो 1956 के मेलबर्न ओलम्पिक में भारत को गोल्ड मैडल जिताने में बलबीर सिंह की खास भूमिका रही थी। 1958 और 1962 में हुए एशियन गेम्स में सिल्वर मैडल जीतने वाली भारतीय टीम में भी बलबीर सिंह सीनियर शामिल थे। बलबीर सिंह के नाम एक मैच में सबसे ज्यादा गोल दागने का रिकॉर्ड भी है। 1952 के ओलम्पिक में नीदरलैंड के खिलाफ हुए मैच में उन्होंने लगातार पांच गोल दागकर इतिहास रचा था। यह रिकॉर्ड आज तक कोई भी हॉकी खिलाड़ी नहीं तोड़ पाया है।
बलबीर सिंह सीनियर पहले ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें पद्मश्री से नवाजा गया था। हॉकी से रिटायर होने के बाद भी बलबीर सिंह हॉकी के लिए काम करते रहे। 1975 में जब भारतीय हॉकी टीम विश्व कप में गोल्ड मैडल जीती थी तब बलबीर सिंह सीनियर कोच के साथ-साथ टीम के मैनेजर भी थे। बलबीर सिंह को लंदन ओलम्पिक 2012 में ओलम्पिक आईकॉन चुना गया था। बलबीर सिंह का नाम गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में भी दर्ज है। मोहम्मद शाहिद भारत के बेहतरीन उम्दा हॉकी खिलाड़ियों में से एक रहे हैं। 14 अप्रैल, 1960 को पैदा हुए मोहम्मद शाहिद ने अपने खेल से भारतीय हॉकी को नई पहचान दी। खासकर हॉकी खेलने के उनके तरीके सबसे जुदा थे। मोहम्मद शाहिद को उनकी ड्रिबलिंग कौशल क्षमता के लिए हमेशा याद किया जाता है। गेंद को अपनी हॉकी स्टिक से विपक्षी टीमों से अलग ले जाने में मोहम्मद शाहिद का कोई जवाब नहीं था। 1980 की चैम्पियंस ट्रॉफी में बेस्ट फॉरवर्ड का खिताब अपने नाम करके शाहिद ने भारतीय हॉकी को अपने खेल से मोहित कर दिया था। शाहिद 1980 मास्को ओलम्पिक की स्वर्ण पदक विजेता भारतीय टीम का हिस्सा भी रहे थे। मोहम्मद शाहिद और उनके साथी खिलाड़ी जफर इकबाल की जोड़ी को विश्व हॉकी में आज भी सबसे मजबूत डिफेंस के तौर पर याद किया जाता है।
धनराज पिल्लै ने भारतीय हॉकी को एक अलग पहचान दिलाई। जिस दौर में हॉकी का खेल भारत में अपनी लोकप्रियता खोने लगा था उस समय धनराज पिल्लै ने सिर्फ अपने खेल से हॉकी के खेल को भारत में बचाए रखा। मोहम्मद शाहिद की ही तरह धनराज पिल्लै अपने खेल में तेज रफ्तार के लिए जाने जाते थे। विपक्षी टीम के खिलाड़ियों के आगे अपनी हॉकी के सहारे पल भर में ही गेंद को काबू में कर लेना और गेंद को गोल के दरवाजे के पार ढकेलने में इनका कोई सानी नहीं था। धनराज पिल्लै के खेल का जादू ऐसा था कि पूरी दुनिया में हॉकी के चाहने वाले उनके मुरीद थे। 1999 में भारत सरकार ने धनराज पिल्लै को राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड दिया तो इसके अलावा 2000 में पद्मश्री के खिताब से सम्मानित किया। धनराज पिल्लै ने अपने करियर में तीन ओलम्पिक, तीन विश्व कप के साथ चार बार एशियन गेम्स में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया। किसी भी भारतीय हॉकी खिलाड़ी के द्वारा बनाया गया यह एक रिकॉर्ड है।
संसारपुर के अजीत पाल सिंह ने भारतीय हॉकी टीम में कप्तान के तौर पर अपनी खास पहचान बनाई थी। अजीत पाल सिंह अपने दौर में भारत के सबसे बेहतरीन सेण्टर हाफ खिलाड़ी के तौर याद किए जाते हैं। अजीत पाल सिंह 1975 क्वालालम्पुर में भारतीय टीम को पहली बार वर्ल्ड कप जिताने वाली टीम का हिस्सा रहे थे। ऊधम सिंह को भारतीय हॉकी में एक मजबूत स्तम्भ के तौर पर याद किया जाता है। उम्दा खेल दिखाकर ऊधम सिंह ने भारतीय हॉकी में अपनी एक खास जगह बनाई। 1949 में अफगानिस्तान के खिलाफ अपने करियर की शुरुआत करने वाले ऊधम सिंह चार ओलम्पिक खेलों में भारतीय टीम का हिस्सा रहे। लेस्ली क्लॉडियस के बाद ऊधम सिंह ओलम्पिक में तीन गोल्ड और एक सिल्वर मैडल जिताने वाले भारत के दूसरे खिलाड़ी हैं। ऊधम सिंह के बारे यह भी कहा जाता है कि यदि चोट के चलते उनका करियर जल्दी खत्म न हुआ होता तो वह लगातार चार ओलम्पिक खेलने वाले पहले खिलाड़ी बन जाते। ऊधम सिंह भारतीय टीम के कोच भी रहे।
हॉकी खिलाड़ी अजीत पाल सिंह के बेटे गगन अजीत सिंह ने भी अपने खेल से भारतीय हॉकी इतिहास में खुद के नाम का डंका बजाया। गगन अजीत सिंह भारत के बेहतरीन स्ट्राइकर के रूप में याद किए जाते हैं। गगन अजीत सिंह मैदान के बीचोंबीच अपनी आक्रामक स्टाइक क्षमता के सहारे कई बार विपक्षी टीमों पर भारी पड़े थे। 1997 में रूस के साथ हुई टेस्ट सीरीज में अपने करियर की शुरुआत करने वाले गगन अजीत सिंह ने अपने करियर में कई कीर्तिमान अपने नाम किए। गगन की कप्तानी में भारतीय जूनियर टीम 2001 में विश्व विजेता बनी थी। गगन अजीत सिंह के करियर की सबसे खास बात रही कि उन्हें क्लब हॉकी टूर्नामेंट में भारत से बाहर जाकर अपने खेल का जौहर दिखाने का मौका मिला।
ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार ने भी अपने पिता की ही तरह भारतीय हॉकी में कई प्रतिमान स्थापित किए। जब मैदान पर अशोक कुमार होते थे तो उनके हत्थे आई गेंद उनके पास से कहीं नहीं जाती थी। काफी समय तक गेंद को कंट्रोल कर गोल के मुहाने तक ले जाने के मामले में अशोक कुमार अद्वितीय थे। अशोक कुमार उन हॉकी खिलाड़ियों में शामिल हैं जिन्होंने चार बार विश्व कप हाकी खेली। 1975 में भारत को विश्व चैम्पियन बनाने में अशोक कुमार का अहम रोल था। वर्ल्ड कप 1975 में ही पाकिस्तान के खिलाफ विजयी गोल दागकर अशोक कुमार ने भारत को पहली बार विश्व चैम्पियन बनाया था। भारतीय हॉकी इतिहास में लेस्ली क्लॉडियस का नाम बेहद ही स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है। ध्यानचंद के दौर में लेस्ली क्लॉडियस का नाम भारतीय हॉकी प्रशंसकों में काफी मशहूर था। लेस्ली क्लॉडियस भारत के उस टीम का हिस्सा रहे जिसने 1948, 1952 और 1956 में स्वर्णिम सफलता हासिल की थी। क्लॉडियस 1960 में रजत पदक जीतने वाली भारतीय टीम में भी शामिल थे। भारतीय हॉकी इतिहास में एक से बढ़कर एक बेजोड़ खिलाड़ी हुए हैं। सबका अपना-अपना हुनर और कौशल था। आज भी हमारे पास बेहतरीन खिलाड़ियों की फौज है, दुनिया की मजबूत टीमों से लोहा लेने की क्षमता भी है। अफसोस की बात है हम भारतीय क्रिकेटरों से इतर हॉकी खिलाड़ियों का हौसला ही नहीं बढ़ाना चाहते। आओ हॉकी से अनुराग दिखाएं, खिलाड़ियों को गले लगाएं।   


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