राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के एक साल के कार्यकाल और उनकी उपलब्धियों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शांतिप्रिय इस शख्स का त्वरित कार्य निपटारे के साथ कानून पर जबर्दस्त भरोसा है। भारतीय राष्ट्राध्यक्ष मुखर्जी ने अपराधियों की दया याचिकाओं को जिस तरह दरकिनार किया है उससे आपराधिक हलकों में अच्छे संकेत पहुंचे हैं। देश की विभिन्न संवैधानिक संस्थाएं हमारे संविधान और कानून के शासन का आधार स्तम्भ हैं, इनमें किसी प्रकार की गड़बड़ी से संविधान का आदर्शवाद कायम रखने में दिक्कत आती है। अपने एक साल के कार्यकाल में मुखर्जी ने 17 दया याचिकाएं ठुकराकर जो मिसाल कायम की है, उसकी सर्वत्र प्रशंसा की जा रही है।
आज देश को अंदर और बाहर दोनों खतरों से सुरक्षित बनाए रखना सभी का कर्तव्य है। लाख कानून बनें, उनके अमल में यदि ढिलाई बरती गई तो उसके परिणाम भयावह ही होंगे। दरअसल सीमाओं पर चौकसी के समान ही आज देश के भीतर भी चौकसी जरूरी हो गई है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह आपराधिक वारदातें बढ़ी हैं उससे मुल्क को आंतरिक खतरा पैदा हो गया है। देश को अमन का पैगाम सिर्फ बातों से नहीं मिलने वाला। यह तभी सम्भव है जब हम अपनी राजनीति, न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की विश्वसनीयता को बनाए रखें। माना कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी है और लोगों को अपने असंतोष को व्यक्त करने का अधिकार है, परंतु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि विधायिका से कानून को या न्यायपालिका से न्याय को अलग नहीं किया जा सकता। ये सजग नागरिक के लिए सबसे जरूरी पक्ष हैं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 17 दया याचिकाओं को ठुकराकर न केवल उनको मिली फांसी की सजा पर अपनी अंतिम मुहर लगा दी है बल्कि दिवंगत राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा द्वारा रद्द की गई 16 दया याचिकाओं से भी आगे निकल गए हैं। देश की पिछली राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के कार्यकाल में मृत्युदण्ड का प्रावधान होने के बावजूद किसी को भी फांसी नहीं दी गई। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दया याचिका खारिज किए जाने के बाद अपराधियों को फांसी मिलना तय हो गया है। फरवरी और मार्च 2013 के बीच राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वीरप्पन के सहयोगी सायमन, गगन प्रकाश, मदैया, बिला वंद्रन की दया याचिकाओं को खारिज किया था। इन पर 22 लोगों की हत्या का जुर्म साबित हुआ था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें फांसी की सजा दी थी। इसके अलावा पूरे परिवार की हत्या के दोषी सुरेश और रामजी समेत गुरमीत सिंह और जफर अली की भी दया याचिका को राष्ट्रपति ने ठुकरा दिया था। हरियाणा के विधायक समेत उनके पूरे परिवार की हत्या के दोषी की दया याचिका को भी राष्ट्रपति मुखर्जी ने खारिज करने में संकोच नहीं किया। दरअसल दया याचिकाओं के निपटारे में हुई देरी को आधार बनाकर पूर्व में दर्जनों अपराधी फांसी की सजा माफ कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचे थे। जबकि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ 24 साल पहले ही कह चुकी है कि दया याचिका के निपटारे में हुई देरी अदालत में याचिका दाखिल करने का आधार तो हो सकती है, लेकिन मृत्युदण्ड से माफी का आधार नहीं हो सकती। देखा जाये तो दया याचिका में विलम्ब के चलते कई बार राष्ट्रपति और राज्यपाल के क्षमादान के विवेकाधिकार पर भी लोगों ने उंगली उठाने का दुस्साहस किया पर ऐसी याचिकाएं अब तक खारिज ही की गई हैं।
ऐसे ही एक मामले में रंगा-बिल्ला ने भी राष्ट्रपति के विवेकाधिकार को चुनौती दी थी और कहा था कि दया याचिका निपटाने के लिए कोई तय प्रक्रिया नहीं है, लेकिन याचिका खारिज कर दी गई।
इंदिरा गांधी के हत्यारे केहर सिंह और सतवंत सिंह की भी इसी तरह की दलीलें सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दी थीं। आखिरकार दोनों मामलों में फांसी पर अमल हुआ। देरी अगर आधार होती तो धनंजय चटर्जी की फांसी भी माफ हो गई होती, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसकी भी देरी की दलील खारिज कर दी थी। देखा जाये तो आपराधिक मामलों में तीसरे पक्ष को याचिका दाखिल करने का अधिकार नहीं होता। केहर और सतवंत के मामले में दया याचिका ठुकराए जाने के बाद अल्तमस रेन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी लेकिन कोर्ट ने सिर्फ लोकस (किस अधिकार से याचिका दाखिल की) के आधार पर याचिका खारिज कर दी थी। देखा जाए तो हमारे देश में त्वरित न्याय प्रक्रिया अन्य मुल्कों की अपेक्षा काफी शिथिल है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा संगीन अपराधियों की दया याचिकाएं खारिज किए जाने को जहां एक साहसिक कदम बताया जा रहा है वहीं मानवाधिकारों के हिमायती मृत्युदण्ड का विरोध कर रहे हैं। देखा जाये तो भारत में आज हर मामले में मृत्युदण्ड के स्वर मुखरित हो रहे हैं। दुनिया में द्वितीय विश्व युद्ध के समय से मृत्युदण्ड उन्मूलन के प्रयास हो रहे हैं। 1977 में छह देशों ने मृत्युदण्ड का निषेध किया था। मौजूदा समय में 95 देशों ने मृत्युदण्ड को अलविदा कह दिया है तो नौ देशों ने इसे अन्य सभी अपराधों के लिए निषेध किया है, सिवाय विशेष परिस्थितियों के। 35 देशों ने बीते 10 साल में इस सजा के लिए किसी को आरोपित नहीं किया है। इस तरह दुनिया के लगभग 140 देश मृत्युदण्ड की परिधि से दूर होते दिख रहे हैं। साल 2009 में 18 देशों ने 714 लोगों को फांसी पर चढ़ाया था। भारत में आज भी सैकड़ों कैदी हैं जिन्हें फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, इनमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के तीन कसूरवार भी शामिल हैं। भारत में 1975 से 1991 के बीच कम से कम 40 लोगों को फांसी दी गई। लेकिन तमिलनाडु के सलेम में 27 अप्रैल, 1995 को सीरियल किलर आटो शंकर को फांसी देने के नौ साल बाद अगस्त 2004 में कोलकाता में धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई। 2004 के बाद मुम्बई आतंकी हमले के दोषी अजमल कसाब और अफजल गुरु को फांसी पर लटकाया गया। एक तरफ देश में वर्ष 2006 के अंत में विभिन्न जेलों में कैद 347 अभियुक्तों को (इनमें आठ महिलाएं शामिल) फांसी की सजा सुनाई गई जबकि इसी साल देश की जेलों में 1423 कैदियों की प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक कारणों से मौत हो गई। जो भी हो प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनते ही फांसी की घटनाओं में तेजी आई है। इस तेजी को राजनीतिज्ञ अगले चुनाव से पहले लोगों की सहानुभूति हासिल करना मान रहे हैं जबकि आम अवाम में इसकी सराहना हो रही है।
आज देश को अंदर और बाहर दोनों खतरों से सुरक्षित बनाए रखना सभी का कर्तव्य है। लाख कानून बनें, उनके अमल में यदि ढिलाई बरती गई तो उसके परिणाम भयावह ही होंगे। दरअसल सीमाओं पर चौकसी के समान ही आज देश के भीतर भी चौकसी जरूरी हो गई है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह आपराधिक वारदातें बढ़ी हैं उससे मुल्क को आंतरिक खतरा पैदा हो गया है। देश को अमन का पैगाम सिर्फ बातों से नहीं मिलने वाला। यह तभी सम्भव है जब हम अपनी राजनीति, न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की विश्वसनीयता को बनाए रखें। माना कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी है और लोगों को अपने असंतोष को व्यक्त करने का अधिकार है, परंतु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि विधायिका से कानून को या न्यायपालिका से न्याय को अलग नहीं किया जा सकता। ये सजग नागरिक के लिए सबसे जरूरी पक्ष हैं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 17 दया याचिकाओं को ठुकराकर न केवल उनको मिली फांसी की सजा पर अपनी अंतिम मुहर लगा दी है बल्कि दिवंगत राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा द्वारा रद्द की गई 16 दया याचिकाओं से भी आगे निकल गए हैं। देश की पिछली राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के कार्यकाल में मृत्युदण्ड का प्रावधान होने के बावजूद किसी को भी फांसी नहीं दी गई। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दया याचिका खारिज किए जाने के बाद अपराधियों को फांसी मिलना तय हो गया है। फरवरी और मार्च 2013 के बीच राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वीरप्पन के सहयोगी सायमन, गगन प्रकाश, मदैया, बिला वंद्रन की दया याचिकाओं को खारिज किया था। इन पर 22 लोगों की हत्या का जुर्म साबित हुआ था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें फांसी की सजा दी थी। इसके अलावा पूरे परिवार की हत्या के दोषी सुरेश और रामजी समेत गुरमीत सिंह और जफर अली की भी दया याचिका को राष्ट्रपति ने ठुकरा दिया था। हरियाणा के विधायक समेत उनके पूरे परिवार की हत्या के दोषी की दया याचिका को भी राष्ट्रपति मुखर्जी ने खारिज करने में संकोच नहीं किया। दरअसल दया याचिकाओं के निपटारे में हुई देरी को आधार बनाकर पूर्व में दर्जनों अपराधी फांसी की सजा माफ कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचे थे। जबकि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ 24 साल पहले ही कह चुकी है कि दया याचिका के निपटारे में हुई देरी अदालत में याचिका दाखिल करने का आधार तो हो सकती है, लेकिन मृत्युदण्ड से माफी का आधार नहीं हो सकती। देखा जाये तो दया याचिका में विलम्ब के चलते कई बार राष्ट्रपति और राज्यपाल के क्षमादान के विवेकाधिकार पर भी लोगों ने उंगली उठाने का दुस्साहस किया पर ऐसी याचिकाएं अब तक खारिज ही की गई हैं।
ऐसे ही एक मामले में रंगा-बिल्ला ने भी राष्ट्रपति के विवेकाधिकार को चुनौती दी थी और कहा था कि दया याचिका निपटाने के लिए कोई तय प्रक्रिया नहीं है, लेकिन याचिका खारिज कर दी गई।
इंदिरा गांधी के हत्यारे केहर सिंह और सतवंत सिंह की भी इसी तरह की दलीलें सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दी थीं। आखिरकार दोनों मामलों में फांसी पर अमल हुआ। देरी अगर आधार होती तो धनंजय चटर्जी की फांसी भी माफ हो गई होती, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसकी भी देरी की दलील खारिज कर दी थी। देखा जाये तो आपराधिक मामलों में तीसरे पक्ष को याचिका दाखिल करने का अधिकार नहीं होता। केहर और सतवंत के मामले में दया याचिका ठुकराए जाने के बाद अल्तमस रेन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी लेकिन कोर्ट ने सिर्फ लोकस (किस अधिकार से याचिका दाखिल की) के आधार पर याचिका खारिज कर दी थी। देखा जाए तो हमारे देश में त्वरित न्याय प्रक्रिया अन्य मुल्कों की अपेक्षा काफी शिथिल है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा संगीन अपराधियों की दया याचिकाएं खारिज किए जाने को जहां एक साहसिक कदम बताया जा रहा है वहीं मानवाधिकारों के हिमायती मृत्युदण्ड का विरोध कर रहे हैं। देखा जाये तो भारत में आज हर मामले में मृत्युदण्ड के स्वर मुखरित हो रहे हैं। दुनिया में द्वितीय विश्व युद्ध के समय से मृत्युदण्ड उन्मूलन के प्रयास हो रहे हैं। 1977 में छह देशों ने मृत्युदण्ड का निषेध किया था। मौजूदा समय में 95 देशों ने मृत्युदण्ड को अलविदा कह दिया है तो नौ देशों ने इसे अन्य सभी अपराधों के लिए निषेध किया है, सिवाय विशेष परिस्थितियों के। 35 देशों ने बीते 10 साल में इस सजा के लिए किसी को आरोपित नहीं किया है। इस तरह दुनिया के लगभग 140 देश मृत्युदण्ड की परिधि से दूर होते दिख रहे हैं। साल 2009 में 18 देशों ने 714 लोगों को फांसी पर चढ़ाया था। भारत में आज भी सैकड़ों कैदी हैं जिन्हें फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, इनमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के तीन कसूरवार भी शामिल हैं। भारत में 1975 से 1991 के बीच कम से कम 40 लोगों को फांसी दी गई। लेकिन तमिलनाडु के सलेम में 27 अप्रैल, 1995 को सीरियल किलर आटो शंकर को फांसी देने के नौ साल बाद अगस्त 2004 में कोलकाता में धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई। 2004 के बाद मुम्बई आतंकी हमले के दोषी अजमल कसाब और अफजल गुरु को फांसी पर लटकाया गया। एक तरफ देश में वर्ष 2006 के अंत में विभिन्न जेलों में कैद 347 अभियुक्तों को (इनमें आठ महिलाएं शामिल) फांसी की सजा सुनाई गई जबकि इसी साल देश की जेलों में 1423 कैदियों की प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक कारणों से मौत हो गई। जो भी हो प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनते ही फांसी की घटनाओं में तेजी आई है। इस तेजी को राजनीतिज्ञ अगले चुनाव से पहले लोगों की सहानुभूति हासिल करना मान रहे हैं जबकि आम अवाम में इसकी सराहना हो रही है।
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