आपराधिक मामलों में सजा पाए सांसदों को चुनाव मैदान से दूर रखने की सुप्रीम कोर्ट की कोशिशों को जहां हमारे माननीय सांसदों ने नकार दिया, वहीं अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति के इन्हीं प्रयासों पर भारतीय ओलम्पिक संघ ने पानी फेर दिया है। आम आवाम ने राजनीतिक अपराधीकरण के खिलाफ तो क्लीन स्पोर्ट्स इण्डिया से जुड़े खिलाड़ियों ने दागी खेलनहारों के खिलाफ खूब गाल बजाए पर उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगती नहीं दिख रही। इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और हमारे संविधान का यह अजीब लचीलापन है कि कानून तोड़ने वाला अपराधी ही नए कानून का निर्माता बन जाता है। जबकि देश का सामान्य नागरिक आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों और खेलनहारों से खासा परेशान है। इससे समाज में अपराधियों को प्रश्रय मिलता है और आपराधिक मानसिकता वाले लोग हावी होते हैं। गौर करें तो देश में मौजूदा 4835 सांसदों और विधायकों में से 1448 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। लाख प्रयासों के बावजूद आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है।
यह अपराध का राजनीतिकरण ही है कि राजनीतिक परिदृश्य में दागियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। नामजद और सजायाफ्ता दोषियों को चुनाव लड़ने का अधिकार जनप्रतिनिधित्व कानून के जरिये मिला हुआ था लेकिन इस विधि सम्मत व्यवस्था के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जाने चाहिए। सवाल यह उठता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता नहीं बन सकता तो वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? जनहित याचिका इसी विसंगति को दूर करने के लिए दाखिल की गई थी। न्यायालय ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि यदि अन्य सजायाफ्ता लोगों को निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है तो सजायाफ्ता सांसदों व विधायकों को यह सुविधा क्यों मिलनी चाहिए? लेकिन सरकार ने कहा कि वह इस व्यवस्था को नहीं बदलना चाहती और उसने नहीं बदला।
राजनीति से इतर भारतीय खेलों पर नजर डालें तो यहां की गंगोत्री भी मैली की मैली ही है। जिस देश की आन-बान-शान और आजादी के लिए हजारों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उसी का आज दुनिया में मजाक उड़ रहा है। खेलों पर अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं लेकिन खेलनहारों की काली करतूत के चलते आज हमारे खिलाड़ी देश-दुनिया में अपने राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान के बिना पौरुष दिखा रहे हैं। भारतीय खेलों में गड़बड़झाला और भाई-भतीजावाद तो लम्बे समय से चल रहा है लेकिन 2010 में देश में हुए राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन में जिस तरह की अनियमितताओं का भण्डाफोड़ हुआ, उससे खेल जगत में हमारी जमकर थू-थू हुई। खेलों में होते खिलवाड़ को संज्ञान में लेते हुए अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने सरकारी हस्तक्षेप के कारण पिछले साल पांच दिसम्बर को भारतीय ओलम्पिक संघ को निलम्बित कर दिया था। भारत को खेल बिरादर में पुन: शामिल किये जाने को 15 मई को लुसाने में हुई अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति की बैठक में केन्द्रीय खेल मंत्री जितेन्द्र सिंह ने पुरजोर कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। भारतीय खेलों में पारदर्शिता लाने की असल कोशिशें केन्द्रीय खेल मंत्री अजय माकन के कार्यकाल में हुर्इं, पर अफसोस दागी खेलनहारों की एकजुटता ने न केवल उनके किए कराए पर पानी फेर दिया बल्कि केन्द्र सरकार ने दबाव में आकर माकन से खेल मंत्रालय ही छीन लिया। देखा जाए तो जिस तरह सुप्रीम कोर्ट नहीं चाहता कि कोई अपराधी जनप्रतिनिधि बने उसी तरह आईओसी भी नहीं चाहती कि खेलों में दागियों की दखलंदाजी बढ़े।
अफसोस, भारतीय ओलम्पिक संघ ने 25 अगस्त को अपनी आमसभा की महत्वपूर्ण बैठक में भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलों के लिये नैतिक आयोग के गठन का फैसला तो लिया पर केवल दो या इससे अधिक साल तक सजायाफ्ता व्यक्तियों को चुनावों से दूर रखने का फैसला करके राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के आरोपी सुरेश कलमाड़ी, ललित भनोट और वीके वर्मा जैसे लोगों के चुनाव लड़ने का रास्ता साफ कर दिया। बैठक में 182 में से 161 सदस्यों ने भाग लिया और आईओसी के आरोप-पत्र वाली शर्त को छोड़कर बाकी सभी शर्तें सर्वसम्मति से स्वीकार लीं। हाल ही देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कारों की जो घोषणा हुई उसमें राजीव गांधी खेल रत्न को लेकर जमकर नूरा-कुश्ती हुई। वर्ष 1991-92 से प्रारम्भ इस खेल अलंकरण को पाने वाले पहले भारतीय शतरंज खिलाड़ी विश्वनाथन आनंद रहे। उसके बाद से यह अवॉर्ड 12 खेलों के 26 खिलाड़ियों को दिया जा चुका है। इस अलंकरण के लिए विवादों की फेहरिस्त भी अर्जुन अवार्डों की ही तरह लम्बी है। वर्ष 2001 में राजीव गांधी खेल रत्न के लिए शूटर अभिनव बिन्द्रा का नाम आया। उन्हें पुरस्कार मिला भी पर तब तक अभिनव के नाम कोई बड़ी उपलब्धि नहीं थी। 2002 में एथलीट केएम बीनामोल को चुना गया लेकिन निशानेबाज अंजलि भागवत के नाम पर विवाद हो गया। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि आखिर दोनों को संयुक्त रूप से यह पुरस्कार दिया गया। विवादों के चलते ही वर्ष 2009 में महिला मुक्केबाज एमसी मैरीकाम, पहलवान सुशील कुमार और बॉक्सर विजेन्द्र सिंह को एक साथ राजीव गांधी खेल रत्न से अलंकृत किया गया। इस अलंकरण के लिए गगन नारंग ने भी विरोध का बिगुल फूंका और निशानेबाजी छोड़ने तक की धमकी दे दी। अंतत: 2011 में नारंग भी खेल रत्न बन गये। इस साल शूटर रोंजन सोढ़ी और डिस्कस थ्रोवर कृष्णा पूनिया के बीच इस अलंकरण के लिए जमकर लाबिंग हुई अंतत: रोंजन सोढ़ी बाजी मार ले गये। देखा जाए तो हितों के टकराव में सबसे पहले शुचिता पराजित होती है। जब हमारे नेता और खेलनहार ही नहीं चाहते कि राजनीति और खेलों से अपराधी दूर रहें तो लाख संशोधनों के बाद भी नेताओं और खेलनहारों का दागी अतीत, वर्तमान और भविष्य हमेशा जनप्रतिनिधित्व करता रहेगा।
यह अपराध का राजनीतिकरण ही है कि राजनीतिक परिदृश्य में दागियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। नामजद और सजायाफ्ता दोषियों को चुनाव लड़ने का अधिकार जनप्रतिनिधित्व कानून के जरिये मिला हुआ था लेकिन इस विधि सम्मत व्यवस्था के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जाने चाहिए। सवाल यह उठता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता नहीं बन सकता तो वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? जनहित याचिका इसी विसंगति को दूर करने के लिए दाखिल की गई थी। न्यायालय ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि यदि अन्य सजायाफ्ता लोगों को निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है तो सजायाफ्ता सांसदों व विधायकों को यह सुविधा क्यों मिलनी चाहिए? लेकिन सरकार ने कहा कि वह इस व्यवस्था को नहीं बदलना चाहती और उसने नहीं बदला।
राजनीति से इतर भारतीय खेलों पर नजर डालें तो यहां की गंगोत्री भी मैली की मैली ही है। जिस देश की आन-बान-शान और आजादी के लिए हजारों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उसी का आज दुनिया में मजाक उड़ रहा है। खेलों पर अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं लेकिन खेलनहारों की काली करतूत के चलते आज हमारे खिलाड़ी देश-दुनिया में अपने राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान के बिना पौरुष दिखा रहे हैं। भारतीय खेलों में गड़बड़झाला और भाई-भतीजावाद तो लम्बे समय से चल रहा है लेकिन 2010 में देश में हुए राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन में जिस तरह की अनियमितताओं का भण्डाफोड़ हुआ, उससे खेल जगत में हमारी जमकर थू-थू हुई। खेलों में होते खिलवाड़ को संज्ञान में लेते हुए अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने सरकारी हस्तक्षेप के कारण पिछले साल पांच दिसम्बर को भारतीय ओलम्पिक संघ को निलम्बित कर दिया था। भारत को खेल बिरादर में पुन: शामिल किये जाने को 15 मई को लुसाने में हुई अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति की बैठक में केन्द्रीय खेल मंत्री जितेन्द्र सिंह ने पुरजोर कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। भारतीय खेलों में पारदर्शिता लाने की असल कोशिशें केन्द्रीय खेल मंत्री अजय माकन के कार्यकाल में हुर्इं, पर अफसोस दागी खेलनहारों की एकजुटता ने न केवल उनके किए कराए पर पानी फेर दिया बल्कि केन्द्र सरकार ने दबाव में आकर माकन से खेल मंत्रालय ही छीन लिया। देखा जाए तो जिस तरह सुप्रीम कोर्ट नहीं चाहता कि कोई अपराधी जनप्रतिनिधि बने उसी तरह आईओसी भी नहीं चाहती कि खेलों में दागियों की दखलंदाजी बढ़े।
अफसोस, भारतीय ओलम्पिक संघ ने 25 अगस्त को अपनी आमसभा की महत्वपूर्ण बैठक में भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलों के लिये नैतिक आयोग के गठन का फैसला तो लिया पर केवल दो या इससे अधिक साल तक सजायाफ्ता व्यक्तियों को चुनावों से दूर रखने का फैसला करके राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के आरोपी सुरेश कलमाड़ी, ललित भनोट और वीके वर्मा जैसे लोगों के चुनाव लड़ने का रास्ता साफ कर दिया। बैठक में 182 में से 161 सदस्यों ने भाग लिया और आईओसी के आरोप-पत्र वाली शर्त को छोड़कर बाकी सभी शर्तें सर्वसम्मति से स्वीकार लीं। हाल ही देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कारों की जो घोषणा हुई उसमें राजीव गांधी खेल रत्न को लेकर जमकर नूरा-कुश्ती हुई। वर्ष 1991-92 से प्रारम्भ इस खेल अलंकरण को पाने वाले पहले भारतीय शतरंज खिलाड़ी विश्वनाथन आनंद रहे। उसके बाद से यह अवॉर्ड 12 खेलों के 26 खिलाड़ियों को दिया जा चुका है। इस अलंकरण के लिए विवादों की फेहरिस्त भी अर्जुन अवार्डों की ही तरह लम्बी है। वर्ष 2001 में राजीव गांधी खेल रत्न के लिए शूटर अभिनव बिन्द्रा का नाम आया। उन्हें पुरस्कार मिला भी पर तब तक अभिनव के नाम कोई बड़ी उपलब्धि नहीं थी। 2002 में एथलीट केएम बीनामोल को चुना गया लेकिन निशानेबाज अंजलि भागवत के नाम पर विवाद हो गया। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि आखिर दोनों को संयुक्त रूप से यह पुरस्कार दिया गया। विवादों के चलते ही वर्ष 2009 में महिला मुक्केबाज एमसी मैरीकाम, पहलवान सुशील कुमार और बॉक्सर विजेन्द्र सिंह को एक साथ राजीव गांधी खेल रत्न से अलंकृत किया गया। इस अलंकरण के लिए गगन नारंग ने भी विरोध का बिगुल फूंका और निशानेबाजी छोड़ने तक की धमकी दे दी। अंतत: 2011 में नारंग भी खेल रत्न बन गये। इस साल शूटर रोंजन सोढ़ी और डिस्कस थ्रोवर कृष्णा पूनिया के बीच इस अलंकरण के लिए जमकर लाबिंग हुई अंतत: रोंजन सोढ़ी बाजी मार ले गये। देखा जाए तो हितों के टकराव में सबसे पहले शुचिता पराजित होती है। जब हमारे नेता और खेलनहार ही नहीं चाहते कि राजनीति और खेलों से अपराधी दूर रहें तो लाख संशोधनों के बाद भी नेताओं और खेलनहारों का दागी अतीत, वर्तमान और भविष्य हमेशा जनप्रतिनिधित्व करता रहेगा।
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