Wednesday 19 April 2017

छोटे शहर की बड़ी खिलाड़ी सबा अंजुम

बेटी की हौसलाअफजाई को गरीब बाप ने बेच दिए थे घर के बर्तन
श्रीप्रकाश शुक्ला
धीरे-धीरे ही सही भारतीय खेलों का परिदृश्य अब बदलता दिख रहा है। कभी अंतरराष्ट्रीय खेल मंचों पर देश के महानगरों के खिलाड़ी ही नजर आते थे लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। यह पुरशकून की बात है कि अब देश को छोटे-छोटे शहरों से बड़े खिलाड़ी मिल रहे हैं। भारतीय महिला हाकी टीम की पूर्व कप्तान सबा अंजुम भी छत्तीसगढ़ के दुर्ग की रहने वाली हैं। जब इस खिलाड़ी को भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला तब उसे यह भी पता नहीं था कि राष्ट्रीय टीम में खेलने के लिए पासपोर्ट की भी जरूरत होती है। खेलप्रेमियों को जानकर ताज्जुब होगा कि अपनी बेटी की हौसलाअफजाई के लिए गरीब पिता ने घर के बर्तन तक बेच दिए थे। आज सबा अंजुम पुलिस अधिकारी हैं।
बकौल सबा अंजुम जब मेरा चयन भारतीय हाकी टीम के लिए हुआ तब उन्हें ये भी नहीं मालूम था कि बाहर जाने के लिए भी पासपोर्ट जरूरी होता है। सबा की बातों से यह पता चलता है कि देश के छोटे-छोटे शहरों से खेलने आते खिलाड़ी बाहर की दुनिया से कितना अनभिज्ञ होते हैं। सबा अंजुम उन दिनों की याद कर शर्मा जाती हैं। छत्तीसगढ़ के दुर्ग की रहने वाली सबा अंजुम का महिला हॉकी में सफर 1994 से ही शुरू हुआ था। सबा अंजुम कहती हैं मेरे पापा ने घर के बर्तन बेचकर मेरा पासपोर्ट बनवाया और मेरे खेलने के लिए सामान जुटाया। कई सालों के बाद आज सबा अंजुम जब अपने सफर को पीछे मुड़कर देखती हैं तो उनकी आँखें भर जाती हैं।
अर्जुन और पद्मश्री अवार्डी सबा कहती हैं कि मेरे पिता दुर्ग में ही एक मस्जिद के मुआज्ज़िन थे जो पाँचों वक्त अज़ान देने का काम करते थे। इसके बदले उन्हें महीने में सिर्फ 400 रुपए मिला करते थे। सबा कहती हैं कि वह घर में सबसे छोटी थीं और स्कूल में ही उन्होंने हॉकी खेलना शुरू किया था। मैं घर में सबसे छोटी थी लिहाजा मुझे किसी ने खेलने से नहीं रोका। अब्बाजान कहा करते थे इसे खेलने दो जब ये 15 साल की हो जाएगी तो इसका खेलना बंद करवा देंगे। मगर हुआ यूँ कि खेलते खेलते मैंने कई कीर्तिमान स्थापित किये और मुझे भारतीय रेलवे में बहुत कम उम्र में ही नौकरी मिल गई। मेरा खेलना जारी रहा और जल्द ही मुझे भारतीय टीम में शामिल कर लिया गया।
सबा अंडर-18 की उस भारतीय महिला हॉकी टीम की सदस्य थीं जिसने चीन में हुए ए.एच.एफ. कप में स्वर्ण हासिल किया था। इसके अलावा 2002 में मैनचेस्टर में हुए कॉमनवेल्थ खेलों में भारतीय टीम ने स्वर्ण पदक जीता था। सबा इस दल की सदस्य थीं। इसके बाद महिला हाकी टीम ने एक के बाद एक अन्तरराष्ट्रीय मैचों में जीत का परचम लहराना शुरू कर दिया। सबा कहती हैं कि कई साल खेलने के बाद पहली बार 2002 में हमारी जीत के बाद मुझे काफी पैसा मिला। उस पैसे से मैंने अपने और अपने परिवार के लिए अपना मकान बनवाया। कभी दुर्ग में किराए के मकान में गुजर-बसर करने वाली सबा अंजुम ने 2002 में राष्ट्रकुल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने के बाद अपना मकान बनवाया। इस बारे में चर्चा करते हुए उनकी आँखें भर आती हैं। सबा के दिल के किसी कोने में कहीं इस बात की कसक तो है कि और खेलों की बनिस्बत या यूँ कहा जाए कि क्रिकेट की तुलना में हॉकी की उपेक्षा हुई है। ख़ासतौर पर महिलाओं के खेल का जहाँ तक सवाल है तो युवा पीढ़ी के लिए बैडमिंटन और टेनिस ज्यादा आकर्षण रखते हैं। हॉकी की कोई महिला खिलाड़ी युवा पीढ़ी की रोल माडल कभी नहीं बन पाई। वह मुस्कुराते हुए कहती हैं कि अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम देश के लिए खेले, हमें तिरंगे से मोहब्बत है। सबा को भरोसा है कि वह दिन जरूर आएगा जब हाकी के खिलाड़ी भी युवा पीढ़ी के रोल माडल होंगे।
सबा का कहना है कि उन्हें अफसोस है कि नौकरियों में हॉकी खिलाड़ियों की उपेक्षा की जाती रही है जबकि हर खिलाड़ी अपने गृह राज्य के लिए कुछ करना चाहता है। इस मामले में हरियाणा और पंजाब के अलावा खिलाड़ियों की कहीं पूछ नहीं है। राज्य सरकारें अगर खिलाड़ियों को अपने यहां नौकरी दें तो इससे खेल को बहुत फायदा होगा। सबा की सगाई उनके एक बचपन के मित्र से हुई है और वह शादी के बाद दुर्ग में ही रहना चाहती हैं।


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