Monday 17 April 2017

खेलों की साख पर बट्टा



भारतीय खेलों पर बेईमानों का राज
 श्रीप्रकाश शुक्ला
जय-पराजय खेल का हिस्सा है। आज हम हारेंगे तो कल जीतेंगे भी। खेलों की दुनिया में ऐसा कौन सा खिलाड़ी है जिसे कभी पराजय से वास्ता न पड़ा हो। आज दुनिया के छोटे-छोटे देशों के खिलाड़ी जहां अपने शारीरिक कौशल और अदम्य इच्छाशक्ति से नित नए कीर्तिमान गढ़ रहे वहीं हमारे कपूत खिलाड़ी इस मूल मंत्र से परे शक्तिवर्द्धक दवाएं गटक कर मुल्क की साख को बट्टा लगा रहे हैं। यह कुलक्षण कम होने की बजाय लगातार बढ़ रहा है। पानी सिर से ऊपर जा चुका है। मुल्क खेल बिरादर के सामने बार-बार शर्मसार हो रहा है लेकिन भारतीय बेईमान खेलनहारों पर इसका रत्तीभर अपराध बोध नजर नहीं आ रहा। डोपिंग के खतरे से बचाव के लिए आज देश में एक ऐसे शीर्ष निकाय के गठन की जरूरत है जो न केवल दोषी खिलाड़ियों पर नजर रखे बल्कि युवा खिलाड़ियों का सही मार्गदर्शन भी कर सके। माना कि अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति के नियमों के मुताबिक शक्तिवर्द्धक दवाओं के सेवन के लिए खिलाड़ी और सिर्फ खिलाड़ी ही जिम्मेदार होता है लेकिन इतना कह देने मात्र से अधिकारियों या खेल संघों की जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती।
नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी भारतीय एथलेटिक्स में डोपिंग के बढ़ते मामलों की वजह खिलाड़ियों का शरीर की ताकत पर ज्यादा और स्किल पर कम निर्भर होना बताती है। उसका मानना है कि शॉर्ट कट रास्ते से कामयाबी की मंजिल हासिल करने के चलते ही भारतीय एथलीट शक्तिवर्द्धक पदार्थों का सहारा लेते हैं। यह सही है कि खेलों को डोपिंग से बिल्कुल मुक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि यह चोरी और बेईमानी की मानवीय प्रवृत्ति है। भारतीय खेल मंत्रालय भी मानता है कि पिछले तीन साल में देश के सैकड़ों खिलाड़ी डोप टेस्ट में पकड़े गए हैं। भारत जैसे-जैसे खेलों के अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में अपने कदम बढ़ा रहा है, कुछ उसी गति से खिलाड़ी डोपिंग का शिकार हो रहे हैं। हालात इतने खराब हो गये हैं कि आज जब कोई भारतीय खिलाड़ी अनुमान से अच्छा प्रदर्शन करता है तो उसे दुनिया संदेह की नजर से देखती है। स्कूल नेशनल खेलों में खिलाड़ियों का डोपिंग में पकड़ा जाना यही सिद्ध करता है कि यह बीमारी जिलास्तर तक अपनी पैठ बना चुकी है। डोपिंग से सिर्फ भारतीय खिलाड़ी ही प्रभावित नहीं हैं बल्कि विदेशों में भी इसका जहर खिलाड़ियों के करियर को लील रहा है। विश्‍व का ऐसा कोई देश नहीं है जहां के खिलाड़ियों ने प्रतिबंधित दवाएं न ली हों या डोपिंग में पकड़े न गए हों। विदेशी खिलाड़ी ज्यादा शातिर होते हैं लिहाजा वे प्रतिबंधित दवाएं लेकर भी डोप परीक्षण में साफ बच जाते हैं।
शक्तिवर्द्धक दवाओं के सेवन की जहां तक बात है खिलाड़ी जब अतिरिक्त शक्ति और स्टेमिना बढ़ाने के लिए प्रतिबंधित दवाएं लेता है तब प्रशिक्षक, डॉक्टर और खेल फेडरेशनों को इसकी जानकारी होती है। अपवादस्वरूप कुछ खिलाड़ियों को प्रतिबंधित दवाओं के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती और वे सर्दी-जुकाम होने पर उन दवाओं का सेवन कर लेते हैं जोकि प्रतिबंधित होती हैं। वर्ष 2011 में विश्‍व एंटी डोपिंग एजेंसी ने नई गाइड लाइन के तहत मिथाइल हैक्सामाइन को प्रतिबंधित दवाओं की सूची में डाल दिया। चूंकि यह प्रतिबंधित पदार्थ भारत में कई खाद्य-तेलों में पाया जाता है लिहाजा कई खिलाड़ी ऐसे खाद्य तेल खाकर भी अनजाने में डोपिंग का शिकार हो रहे हैं। सच तो यह भी है कि प्रतिबंधित दवाओं की सूची इतनी लम्बी है कि खिलाड़ियों के लिए इसे याद रखना बहुत मुश्किल है।
भारत में अधिकांश डोपिंग मामलों में विदेशी प्रशिक्षकों की भूमिका भी संदिग्ध रही है। देखा जाए तो पिछले एक दशक में भारतीय खेल प्राधिकरण ने खेलों में बेहतर प्रदर्शन के लिए जिन 30-40 विदेशी प्रशिक्षकों को नियुक्त किया है, इनमें से अधिकांश पूर्व सोवियत संघ के गणराज्यों से सम्बन्ध रखते हैं, जहां डोपिंग का खेल लम्बे अर्से से चल रहा है। दरअसल, भारतीय खेल फेडरेशन जब विदेशी प्रशिक्षकों को नियुक्त करते हैं तो उनसे उम्मीद की जाती है कि उनके प्रशिक्षण से भारतीय खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक ही जीतें। खेल फेडेरशनों की इसी अपेक्षा पर खरा उतरने के लिए विदेशी प्रशिक्षक कुछ भी करने से नहीं चूकते। जानकर ताज्जुब होगा कि कई देशों में तो बेहतर प्रदर्शन करने वाली ऐसी शक्तिवर्द्धक दवाओं पर शोध भी किया जा रहा है जो डोप टेस्ट में पकड़ में न आएं। अमेरिका के नामी साइक्लिस्ट और रिकॉर्ड सात बार टूर डे फ्रांस जीतने वाले लांस आर्मस्ट्रांग ने अपना हर खिताब प्रतिबंधित दवाओं के सेवन के बल पर ही जीता लेकिन अपने 15 साल के करियर में 500 डोप टेस्ट के दौरान वह एक बार भी नहीं पकड़े गए। बाद में लांस आर्मस्ट्रांग ने स्वीकारा कि डोपिंग के बिना उनका जीतना मुमकिन ही नहीं था। अपने साफ-सुथरे खेल और ईमानदार खिलाड़ियों पर गर्व करने वाले ऑस्ट्रेलिया को तब झटका लगा जब उसे एक सरकारी रिपोर्ट के जरिए पता लगा कि उसके कई खिलाड़ी डोपिंग में शामिल हैं। रूस के कई ओलम्पिक पदक विजेताओं के डोप टेस्ट में फेल होने के चलते उनसे पदक छीने गए और आजीवन प्रतिबंध भी लगाया गया। डोपिंग के मामले में चीन भी अच्छा-खासा बदनाम है।
खेलों में डोपिंग कोई नई बात नहीं है। खेल, खिलाड़ियों और शक्तिवर्धक दवाओं का बहुत पुराना नाता है। प्राचीन ओलम्पिक खेलों से ही डोपिंग होती आई है। 1896 में शुरुआती ओलम्पिक में खिलाड़ियों को दवाएं, टॉनिक और अन्य शक्तिवर्द्धक पदार्थ लेने की पूरी छूट थी। उन दिनों खिलाड़ी थकान और दर्द दूर करने के लिए कोकीन और शराब को दवा के तौर पर लेते थे। 1904 के सेंट लुई ओलम्पिक में डोपिंग का पहला मामला पकड़ा गया था। इसमें अमेरिकी मैराथन धावक थॉमस हिक्स को उनके कोच ने दौड़ के दौरान स्ट्रेचनाइन और ब्रांडी दी थी। हिक्स ने तब दो घंटे 22 मिनट और 18.4 सेकेंड में नए ओलम्पिक रिकॉर्ड के साथ मैराथन जीती थी लेकिन तब डोपिंग के लिए कोई नियम नहीं था इसलिए हिक्स के खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं हुई। 1960 के रोम ओलम्पिक के दौरान डेनमार्क के जानसन साइकिल रेस के दौरान नीचे गिर गए और उनकी मौत हो गई। बाद में जांच से पता चला कि उन्होंने प्रतिबंधित एम्फेटेमाइन्स दवा ली थी। यह ओलम्पिक में डोपिंग के कारण हुई पहली मौत थी। खेलों में शक्तिवर्द्धक दवाओं के बढ़ते चलन के कारण विभिन्न खेल संघों ने डोपिंग पर प्रतिबंध लगाने का निश्‍चय किया, जिसे 1968 के मैक्सिको ओलम्पिक में अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने लागू किया। 1999 में अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने विश्‍व एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) की स्थापना की जो खिलाड़ियों का डोप टेस्ट करने के अलावा डोपिंग से जुड़े अन्य मसलों से भी वास्ता रखती है। इसके बावजूद 2004 के एथेंस ओलम्पिक में 27, 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में 14 तथा लंदन ओलम्पिक में 12 खिलाड़ी डोपिंग में पकड़े गए। डोपिंग के चलते पहला प्रतिबंध झेलने वाले स्वीडन के हांस गुनार लिजनेवाल थे। भारत की वेटलिफ्टर प्रतिमा कुमारी और सनामाचा चानू को 2004 के एथेंस ओलम्पिक में एनाबॉलिक और फुटोसेनाइड के सेवन का दोषी पाया गया था और इसके कारण इन दोनों खिलाड़ियों पर तो आजीवन प्रतिबंध लगा ही साथ ही इंडियन वेटलिफ्टिंग फेडरेशन पर भी दो साल का प्रतिबंध लग गया।
भारत का भले ही खेलजगत में बहुत बड़ा स्थान नहीं है लेकिन अगर डोपिंग के उल्लंघन की बात करें तो विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) की 2015 की रिपोर्ट में वह तीसरे स्थान पर है। देश के कुल 117 खिलाड़ियों को प्रतिबंधित दवाइयों के सेवन का दोषी पाया गया और यह लगातार तीसरा अवसर है जबकि भारत डोपिंग उल्लंघन के मामलों में शीर्ष तीन देशों में शामिल है। वाडा ने हाल ही डोपिंग उल्लंघन की जो सूची जारी की है उसमें भारत से आगे रूस (176) और इटली (129) शामिल हैं। भारत इससे पहले 2013 और 2014 में भी इस सूची में तीसरे स्थान पर था। भारत के लिए यह चिन्ता का विषय है कि इन तीन वर्षों के दौरान डोप में पकड़े जाने वाले खिलाड़ियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। डोपिंग रोधी नियमों के उल्लंघन में भारत से 2013 में 91 और 2014 में 96 मामले सामने आये थे। वर्ष 2015 में जिन 117 भारतीयों को डोपिंग अपराध में पकड़ा गया उनमें 80 पुरुष और 37 महिला खिलाड़ी शामिल हैं। अगर अलग-अलग खेलों की बात करें तो सबसे ज्यादा भारोत्तोलक डोपिंग में पकड़े गए। कुल 56 भारतीय भारोत्तोलक (32 पुरुष और 24 महिलाएं) डोपिंग में नाकाम रहे थे, इसके बाद एथलेटिक्स (21) का नम्बर आता है जिसमें 14 पुरुष और सात महिला एथलीट शामिल हैं। इसके बाद मुक्केबाजी (आठ), कुश्ती (आठ), साइकिलिंग (चार), कबड्डी (चार), तैराकी (तीन), पावरलिफ्टिंग (तीन), जूडो (दो), वुशू (दो), रोइंग, बॉडी बिल्डिंग हॉकी, फुटबॉल तथा स्ट्रीट एण्ड बॉल हॉकी  में एक-एक खिलाड़ी शामिल हैं। राष्ट्रीय डोपिंग रोधी एजेंसी (नाडा) ने 2015 के दौरान 5162 नमूने लिये थे जिसमें 110 प्रतिबंधित पदार्थों के लिए पॉजीटिव पाये गये थे।
भारतीय खिलाड़ियों पर प्रतिबंधित दवाओं के सेवन के आरोप नए नहीं हैं। पहले भी ऐसी खबरें आती रही हैं लेकिन चिन्ता की बात तो यह है कि पिछले कुछ वर्षों में इसमें लगातार बढ़ोत्तरी हुई है। 1968 के मेक्सिको खेलों के ट्रायल में दिल्ली के रेलवे स्टेडियम में कृपाल सिंह 10 हजार मीटर दौड़ में भागते समय ट्रैक छोड़कर सीढ़ियों पर चढ़ गए थे। उनके मुंह से झाग निकला और वे बेहोश हो गए, बाद में पता चला कि उन्होंने नशीले पदार्थ ले रखे थे ताकि मेक्सिको ओलम्पिक खेलों के लिए क्वालीफाई कर सकें। 1982 के दिल्ली एशियाड में भी विवाद हुआ था जब शॉटपुट के रजत पदक विजेता कुवैत के मोहम्मद झिंकावी ने स्वर्ण पदक विजेता बहादुर सिंह के खिलाफ आरोप लगाए थे कि उन्होंने डोप टेस्ट नहीं करवाया। झिंकावी ने तब विरोध जाहिर करते हुए अपना रजत पदक भी नहीं लिया था। वह यह कहकर वापस गए थे कि एक महीने बाद कुवैत में होने वाली एशियन चैम्पियनशिप में वे बहादुर सिंह का मानमर्दन करेंगे और ऐसा हुआ भी था। तब हमारे खेलनहारों ने इस गम्भीर मामले पर ध्यान देने की बजाय बहादुर सिंह को न केवल दोषमुक्त करार दिया बल्कि बाद में उन्हें भारतीय एथलीटों के प्रशिक्षण का महती दायित्व भी सौंपा।
भारतीय खेल मंत्रालय की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह खिलाड़ियों को ऐसी सुविधाएं और सही जानकारी दे जिससे कि खिलाड़ी डोपिंग के डंक से बच सकें। अब तक देश के कई बेहतरीन खिलाड़ी डोप टेस्ट में फेल होने की वजह से आजीवन प्रतिबंध झेल रहे हैं। पिछले कुछ सालों से भारत में डोपिंग के बढ़ते मामलों को देखते हुए सरकार ने राष्ट्रीय एंटी डोपिंग एजेंसी (नाडा) का गठन किया है। यह संस्था कुछ हद तक अपने काम में सफल भी रही है। 2010 राष्ट्रमण्डल खेलों में मिली अपार सफलता के बाद हर भारतीय खुश था लेकिन उसके बाद एक-एक कर जिस तरह हमारे खिलाड़ी डोपिंग में फंसे उससे हमें दुनिया के सामने शर्मसार होना पड़ा। जब भी हमारा कोई खिलाड़ी डोपिंग में पकड़ा जाता है, अधिकारियों की तंद्रा टूटती है, कुछ दिनों तक हो-हल्ला मचता है और आखिरकार अज्ञानता का बहाना लेकर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है। पहलवान नरसिंह यादव के मामले में क्या कुछ नहीं हुआ सबके सामने है। भारतीय खेल मंत्रालय का दायित्व बनता है कि वह इस कुलक्षण पर तत्काल अंकुश लगाए वरना हमारा हर खिलाड़ी बेईमान कहलाएगा।


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