सरकार को भ्रूणों की चिन्ता, जिन्दा बच्चों की नहीं
एक ओर केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए सख्त कदम उठाये जाने के दावे किए जा रहे हैं, समाज में जागरूकता लाए जाने की बात की जा रही है, पुलिस प्रशासन को ऐसे मामलों में अतिरिक्त संवेदनशीलता बरतने को कहा जा रहा है पर स्थिति सुधरने की जगह और बिगड़ती जा रही है। देश में कन्या भ्रूण हत्या कब थमेगी इसका कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि मुल्क में साक्षर-असाक्षर, अमीर-गरीब, सरकारी-गैरसरकारी सभी तबकों में लड़कियां अभिशप्त हैं। देश में एक तरफ अजन्मों की फिक्र की जा रही है तो दूसरी तरफ उन करोड़ों निरीह-लाचार बच्चों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है जो दो वक्त की रोटी के लिए अभिशप्त जीवन जी रहे हैं। देखा जाए तो आज देश में भ्रूण हत्या से भी अधिक बच्चों पर हो हो रहे जुल्म अधिक चिन्ता का विषय हैं।
मानव अपनी चेतना के रथ पर अनादिकाल से गतिमान है। उसकी यात्रा की परिसमाप्ति कहां और कैसे होगी यह कोई नहीं कह सकता। हम अपने जीवन के अश्रुकणों की कहानी और हास की परम स्निग्ध-ज्योत्सना को अपने तक सीमित नहीं रखना चाहते। हमारी इच्छा होती है कि कोई हमारे आंसुओं को पोछे, हमारी आहों को दुलराये और हमारी हँसी में अपने हृदय के उल्लास को घोल दे। यही नहीं हम अपने समस्त अनुभवों का दान, अपने समस्त ज्ञान की मंजूषा एवं अपनी समस्त कामनाओं की कलना अपनी संतति को दे जाना चाहते हैं। सच तो यह है कि हम सब अपने लिए जी रहे हैं परिणामस्वरूप राष्ट्र का भविष्य बच्चे दुराचारियों के हाथ का खिलौना बन गये हैं।
देखा जाए तो हमारे मुल्क का भावी विकास और निर्माण वर्तमान पीढ़ी के साथ ही आने वाली नई पीढ़ी पर भी निर्भर है, तभी तो कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। लेकिन आज देश-समाज का नैतिक पतन भविष्य की पीढ़ी के लिए काफी विध्वंसक है। देश में बाल अपराध के आंकड़े दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं। लोग गरीब बच्चों की मजबूरी का फायदा उठाते हुए उनसे गैर कानूनी कार्य करा रहे हैं। बच्चों के अपहरण की घटनाएं लगातार बढ़ रही है। वे पशु-पक्षियों की तरह बेचे जा रहे हैं। निश्चित ही इसके पीछे परिवार, अवांछित पड़ोस, समाज, स्कूलों का अविवेकपूर्ण वातावरण, टेलीविजन, सिनेमा, असुरक्षा की भावना, भय, अकेलापन, भावनात्मक द्वन्द्व, अपर्याप्त निवास, निम्न जीवनस्तर, पारिवारिक अलगाव, पढ़ाई का बोझ, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, आधुनिक संस्कृति, मनोवैज्ञानिक एवं पारिवारिक कारक निहित हैं। देखा जाए तो आज के अभिभावक भी भौतिकता एवं महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ में व्यस्त हैं और वे बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पा रहे। पिता को व्यवसाय व नौकरी तो मां को नियमित कार्यों व अपने सगे-सम्बन्धियों से फुर्सत नहीं है। कहने को देश में बाल अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए किशोर न्याय अधिनियम 1986 जैसे और भी नियम-कायदे चलन में हैं पर इन नियमों का असर तब तक नहीं होगा जब तक कि देश से गरीबी-भुखमरी दूर नहीं हो जाती। दरअसल पेट की आग इंसान से सब कुछ गलत कराती है। देश के कोने-कोने में हम बच्चों को भीख मांगते देख सकते हैं। भिक्षावृत्ति जहां एक सामाजिक बुराई है वहीं उदरपूर्ति का सबसे आसान जरिया भी है। इस लाइलाज बीमारी के चलते ही भारत को भिखारियों का देश कहा जाने लगा है? यह विडम्बना ही है कि भारत का एक बड़ा वर्ग भिखमंगों का है। वैसे तो भारत में भीख मांगना वैदिक काल से ही चला आ रहा है लेकिन उस समय इसका अर्थ भिक्षा व दान होता था। आज भीख मांगना धंधा बन गया है। देश में बाल श्रम व बाल अपराध की स्थिति पर सरकारी आंकड़े कुछ भी कहते हों पर जानकर ताज्जुब होगा कि निजी क्षेत्रों में कोई 12 करोड़ बच्चे पेट की खातिर जुल्म-ज्यादती सहन कर रहे हैं। इनमें 25 फीसदी बच्चे दुराचारियों के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं। वैसे तो बच्चों की उचित परवरिश को देशभर में बहुत से नियम-कायदे हैं पर राजनीतिक व सामाजिक इच्छाशक्ति में अभाव के चलते सरकारी तंत्र इन्हें लागू करने में अपने आपको अक्षम पाता है। बेहतर होगा कानून बिना दबाव अपने काम को अंजाम दे और बच्चों के पुनर्वास का भी ख्याल रखे क्योंकि खोया बचपन कभी वापस नहीं लौटता। बीते महीने यूनीसेफ की रिपोर्ट में खुलासा किया गया कि भारत में 22 फीसदी लड़कियां कम उम्र में ही मां बन जाती हैं और 43 फीसदी पांच साल से कम उम्र के बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। शहरों में रहने वालों की संख्या तकरीबन 37 करोड़ है इनमें अधिकतर संख्या गांव से पलायन करने वालों की है। इन शहरों में हर तीन में से एक व्यक्ति नाले अथवा रेलवे लाइन के किनारे रहता है। देश के बड़े शहरों में कुल मिलाकर करीब पचास हजार ऐसी बस्तियां हैं जहां बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हंै। दुनिया भर में कम उम्र के बच्चों की मौतों में 20 प्रतिशत भारत में होती हैं और इनमें सबसे अधिक अल्पसंख्यक तथा दलित समुदाय प्रभावित हैं। सरकार ने जिस तरह से ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों के लिए योजनाएं चला रखी हैं वैसी ही योजनाएं शहरों में रहने वाले गरीब बच्चों के लिए भी शुरू की जानी चाहिए। हिन्दुस्तान सदियों से एक ऐसा देश रहा है जो अपनी सांस्कृतिक विरासत और उन्नत सामाजिक चेतना के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। यहां महिलाओं और बच्चों को भगवान का दर्जा दिया गया है पर आज स्थिति भयावह है। यहां कथनी और करनी में एक बड़ा अंतर है। हम नारी को देवी के रूप में सम्मान की बात तो करते हैं परंतु उसे दर्जा नहीं देना चाहते हैं। हम बच्चों को भगवान का रूप तो मानते हैं परंतु उसका ख्याल नहीं रखना चाहते। देश में बच्चों के अपहरण और उनके लापता होने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। वर्ष 2008 से 2010 के दौरान देश में 28 हजार से अधिक बच्चों का अपहरण हुआ जबकि 1.84 लाख बच्चे इस अवधि के दौरान लापता हुए। बच्चों के अपहरण के मामले में उत्तरप्रदेश देश भर में वर्ष 2011 में अव्वल रहा। वर्ष 2008 में 7,862 बच्चों का अपहरण हुआ, तो 2009 में 9,436 और 2010 में ऐसे 11,297 मामले दर्ज किए गए। इसी अवधि में कुल 1,84,605 बच्चे लापता हुए। बच्चों के अपहरण के पीछे कोई एक कारण नहीं है। कुछ बच्चे जहां रंजिशन व पैसे के कारण अपहृत किये जा रहे हैं वहीं गरीब बच्चों का अपहरण अनैतिक कार्यों के लिए किया जा रहा है। यह बच्चे विदेशियों तक बेचे जा रहे हैं।
भ्रूण हत्या जहां स्वेच्छा की परिधि में आता है वहीं बाल अपराध सामाजिक अनैतिकता का घृणित खेल है। बाल अपराधों में उत्तरप्रदेश की स्थिति काफी खराब है। आगरा को ही लें तो यहां चार मई, 2011 से चार मई, 2012 तक 29 किशोरियों से दुराचार होना हमारे समाज का सबसे विद्रूप चेहरा है। एक साल में ही यहां बच्चों के अपहरण की दर्जनों वारदातें हुई हैं।
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