Tuesday, 22 May 2012




 आईपीएल  में  फिक्सिंग  फसाद  का साया  

 श्रीप्रकाश शुक्ला

इंडियन  प्रीमियर लीग के पांचवें संस्करण की समाप्ति से कुछ पहले ही क्रिकेट को लेकर समूचा खेल जगत न केवल स्तब्ध है बल्कि आग-बबूला भी है। जिस क्रिकेट को लेकर भारत में अन्य खेल रसातल को जाते दिख रहे हैं उसी खेल ने सभी मर्यादाओं को ताक पर रख खेलभावना को आग लगा दी है। क्रिकेट के अलम्बरदार न्याय देने की जगह अपना मुंह छिपाते नजर आ रहे हैं। क्रिकेट की खोई अस्मत व किस्मत का फैसला तो भविष्य तय करेगा पर दुनिया यह जरूर जान गई है कि भद्रजनों का यह खेल अब बेईमानों, दुराचारियों के हाथ की कठपुतली बन गया है। आईपीएल तो हमेशा विवादों में रही है। कभी विवाद खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त को लेकर हुआ तो कभी चीयर लीडर्स को लेकर भारतीय संस्कृति सकते में नजर आई। पांचवें संस्करण में तो इंतहा ही हो गई। खिलाड़ियों पर फिक्सिंग का भूत सवार हुआ तो कोलकाता नाइट राइडर्स के मालिक किंग शाहरुख खान सुरा के सुरूर में मदहोश हो गए। फिक्सिंग की फांस में फंसे खिलाड़ियों को भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड ने मैदान से बाहर का रास्ता दिखाया तो शाहरुख खान भी अब अपने ही शहर में पांच साल तक मैदान में क्रिकेट का मजा नहीं ले पाएंगे। मुम्बई क्रिकेट एसोसिएशन शाहरुख खान को सबक सिखाकर अपनी पीठ थपथपा रही है तो दूसरी तरफ क्रिकेट से वास्ता न रखने वाले सियासत की जमीन को खाद-पानी देने से बाज नहीं आ रहे।  
पिछले कुछ साल से क्रिकेट में मैच फिक्सिंग व फसाद की घटनाएं जिस तरह सामने आई हैं उससे इस खेल की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में आ गई है। पैसे लेकर टीम बदलने या सौदे के मुताबिक गेंद फेंकने की बात कबूल करने वाले पांच खिलाड़ियों को निलम्बित कर दिया गया। देखने में यह भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड यानी बीसीसीआई का एक सख्त फैसला लगता है लेकिन क्या इतने भर से इस खेल पर लगते ग्रहण को दूर किया जा सकता है? आईपीएल मैचों के नतीजे पहले से तय होने के आरोप पहले भी लग चुके हैं और बीसीसीआई ने सच्चाई का पता लगाकर कार्रवाई करने का आश्वासन भी दिया था। लेकिन ताजा मामला इस बात का सबूत है कि इस गोरखधंधे को रोकने के लिए शायद कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। टेलीविजन चैनल के स्टिंग आॅपरेशन में खिलाड़ियों को जो कहते हुए दिखाया गया, अगर वह सच है तो इससे आईपीएल मैचों के बहाने काले धन के एक व्यापक खेल का संकेत जरूर मिलता है। मैदान में अगर कोई खिलाड़ी नो बॉल फेंकता है, बल्ला गलत चला देता है या रन आउट हो जाता है, तो दर्शक यह कैसे मान लेंगे कि उसके पीछे मोटी रकम का खेल नहीं होगा। दरअसल, आईपीएल जैसे आयोजनों में शुरुआत ही जिस तरह खिलाड़ियों की खरीद-बिक्री से होती है, उसमें पैसे के लेन-देन या अपनी ज्यादा कीमत वसूलने की बीमारी का और फैलना या गहरा होना लाजिमी है। सच तो यह है कि अब आईपीएल के साथ-साथ दूसरे मैचों के आयोजनों में पैसे का खेल जिस तरह शामिल हो चुका है, वह न सिर्फ क्रिकेट के प्रति दर्शकों के आकर्षण को छीन सकता है, बल्कि इससे खुद इस खेल का स्वभाव भी खत्म होता जा रहा है। यह बेवजह नहीं है कि आईपीएल को पैसे वालों का तमाशा और काले धन का खेल कहा जाने लगा है। इस तरह की गतिविधियां कितनी व्यापक होती जा रही हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बीसीसीआई को भारतीय क्रिकेट के लिए भ्रष्टाचार निरोधक इकाई गठित करने की घोषणा करनी पड़ी। दर्शक यही मानकर मैदान में या टेलीविजन पर मैच देखते हैं कि खिलाड़ी अपनी पूरी क्षमता के साथ टीम के लिए खेल रहे हैं। लेकिन अगर उनके हाथ से निकलने वाली गेंद या चलने वाला बल्ला कहीं और से नियंत्रित हो रहा हो तो यह दर्शकों के साथ धोखा नहीं तो और क्या है? अगर दर्शकों का भरोसा ऐसी प्रतियोगिताओं से उठ गया तो उनके आयोजन का क्या मतलब रह जाएगा? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इसका असर केवल आईपीएल जैसे आयोजनों तक सीमित नहीं रहेगा। कोई भी मैच देखते हुए आम लोगों के मन में एक संदेह बना रहेगा कि इसमें किस पक्ष का खिलाड़ी ईमानदारी से खेल रहा है। यूं तो जिस पूरे आयोजन की बुनियाद ही पैसे के खेल और चकाचौंध पर कायम हो, उसमें अगर कुछ खिलाड़ी अपने हुनर का सौदा लाखों-करोड़ों रुपए रिश्वत लेकर कर रहे हों तो यह कोई हैरान होने वाली बात नहीं होनी चाहिए। खेल के साथ हो रहे इस खिलवाड़ में क्रिकेट महज पैसे का तमाशा बनता जा रहा है। अगर क्रिकेट को एक स्वस्थ खेल के रूप में बचाए रखना है तो आईपीएल जैसे आयोजनों को खत्म करने पर विचार किया जाना चाहिए। इंडियन प्रीमियर लीग जब से शुरू हुआ है, तब से विवादों के घेरे में रहा है। जिस प्रकार इसमें उद्योग व फिल्म जगत की हस्तियां जुड़ीं, खिलाड़ियों को करोड़ों की बोली लगाकर खरीदा गया, चौकों-छक्कों का जश्न मनाने के लिए चीयर लीडर्स को मैदान में उतारा गया और मैच के बाद सुरा-सुन्दरियों के साथ देर रात तक चलने वाली पार्टियों का चलन प्रारम्भ किया गया, उससे क्रिकेट नाम का लोकप्रिय खेल शोहदों की पार्टी बनकर रह गया। अपने पांचवें सीजन में भी आईपीएल विवादों से बच नहीं पाया है। इस बार उस पर क्रिकेट के पुराने जिन्न फिक्सिंग का साया पड़ा है। फर्क इतना ही है कि मैच की जगह स्पॉट फिक्सिंग की जा रही है। स्टिंग आॅपरेशन में कुछेक खिलाड़ियों से टीमों में शामिल होने, खरीदने की असली कीमत, काला धन   और स्पॉट फिक्सिंग आदि पर बातचीत में इसका खुलासा किया है। अपना दामन बचाए रखने के लिए बीसीसीआई ने पांच खिलाड़ियों पर क्रिकेट के हर फार्म में प्रतिबंध लगा दिया है। समिति गठित कर जांच करने की बात भी कही है। संसद में भी आईपीएल में स्पॉट फिक्सिंग मामले पर सवाल उछाले गए लेकिन सारे सवालों के बीच जो सबसे बड़ा सवाल है, उसका जवाब देने से बीसीसीआई और खेल संघों पर काबिज राजनेता भी  बच रहे हैं। सवाल यह है कि चंद छोटे खिलाड़ियों को, जो कुछ लाख रुपयों के लिए नो बाल डालने या आउट होने को तैयार हो जाते हैं, खेल से बेदखल कर देने से क्या क्रिकेट में आयी गंदगी की सफाई हो सकती है। जब तक फिक्सिंग कर अरबों का खेल खेलने वाली बड़ी मछलियों को कांटे में नहीं फंसाया जाता, तब तक गंदगी के बढ़ने के आसार हमेशा बने रहेंगे। दु:खद यह है कि इन बड़ी मछलियों पर कोई जाल नहीं डालना चाहता। खेल मंत्री के रूप में अजय माकन ने खेल विधेयक पारित करवाने की भरसक कोशिश की थी लेकिन उसका विरोध खिलाड़ी राजनेताओं ने बखूबी किया। वे जानते हैं कि जब तक खेल संघों पर उनका वर्चस्व बना रहेगा, तब तक खेल और खिलाड़ी दोनों उनकी मुट्ठी में रहेंगे। राजनीति का खेल और खेल की राजनीति दोनों इससे भलीभांति चलेंगे। अगर माकन का खेल विधेयक पारित होता तो बीसीसीआई पर भी थोड़ा अकुंश लगता लेकिन वह तो उल्टे आंखें तरेर रही है, यह कह कर कि हम सरकार से पैसा लेते नहीं, बल्कि देते हैं। ऐसे में अगर बीसीसीआई यह कहती है कि क्रिकेट को साफ-सुथरा रखा जा रहा है, पूरी पारदर्शिता बरती जा रही है, तो उस पर विश्वास कैसे किया जा सकता है।
बीसीसीआई और उसके द्वारा नियुक्त किसी भी समिति से मामले की निष्पक्ष जांच की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इसका कारण यह है कि आईपीएल टीम मालिकों और बीसीसीआई के अधिकारियों के सीधे सम्बन्ध हैं। बीसीसीआई अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन खुद चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक हैं। श्रीनिवासन का कहना है कि इस मामले में टीम मालिकों की भूमिका की जांच की जाए या नहीं, इसका फैसला आईपीएल गवर्निंग काउंसिल करेगी। गौरतलब है कि काउंसिल श्रीनिवासन को ही रिपोर्ट करती है। ऐसे में काउंसिल से निष्पक्ष जांच की उम्मीद कैसे की जा सकती है। यह खुद मुजरिम और खुद जज जैसा मामला हो जाएगा। आईपीएल के कीचड़ को साफ करने में इसलिए भी दिक्कत आ सकती है कि जनता के बीच यह फारमेट लोकप्रिय हो चुका है। बीसीसीआई और आईपीएल के आयोजकों को इस बात से बल मिलता है कि वे चाहे जिस तरह से मैच करवा रहे हों, जनता तो उसे देखने आ ही रही है। दर्शक क्रिकेट देखने के लिए स्टेडियम पहुंच रहे हैं, पर्दे के पीछे क्या खेल चल रहा है, इस बारे में वे लगभग अनभिज्ञ हैं। लेकिन अब जरूरी है कि जनता भी क्रिकेट के नाम खपाए जा रहे कालेधन की हकीकत को समझे। आखिर आयोजक, टीम मालिक और उनके इशारों पर नाचने वाले खिलाड़ी सबका कारोबार जनता की गाढ़ी कमाई से ही जो चल रहा है।

सरकार को भ्रूणों की चिन्ता, जिन्दा बच्चों की नहीं


एक ओर केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा कन्या  भ्रूण  हत्या रोकने के लिए सख्त कदम उठाये जाने के दावे किए जा रहे हैं, समाज में जागरूकता लाए जाने की बात की जा रही है, पुलिस प्रशासन को ऐसे मामलों में अतिरिक्त संवेदनशीलता बरतने को कहा जा रहा है पर स्थिति सुधरने की जगह और बिगड़ती जा रही है। देश में कन्या भ्रूण हत्या कब थमेगी इसका कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि मुल्क में साक्षर-असाक्षर, अमीर-गरीब, सरकारी-गैरसरकारी सभी तबकों में लड़कियां अभिशप्त हैं। देश में एक तरफ अजन्मों की फिक्र की जा रही है तो दूसरी तरफ उन करोड़ों निरीह-लाचार बच्चों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है जो दो वक्त की रोटी के लिए अभिशप्त जीवन जी रहे हैं। देखा जाए तो आज देश में भ्रूण हत्या से भी अधिक बच्चों पर हो हो रहे जुल्म अधिक चिन्ता का विषय हैं।
मानव अपनी चेतना के रथ पर अनादिकाल से गतिमान है। उसकी यात्रा की परिसमाप्ति कहां और कैसे होगी यह कोई नहीं कह सकता। हम अपने जीवन के अश्रुकणों की कहानी और हास की परम स्निग्ध-ज्योत्सना को अपने तक सीमित नहीं रखना चाहते। हमारी इच्छा होती है कि कोई हमारे आंसुओं को पोछे, हमारी आहों को दुलराये और हमारी हँसी में अपने हृदय के उल्लास को घोल दे। यही नहीं हम अपने समस्त अनुभवों का दान, अपने समस्त ज्ञान की मंजूषा एवं अपनी समस्त कामनाओं की कलना अपनी संतति को दे जाना चाहते हैं। सच तो यह है कि हम सब अपने लिए जी रहे हैं परिणामस्वरूप राष्ट्र का भविष्य बच्चे दुराचारियों के हाथ का खिलौना बन गये हैं।
देखा जाए तो हमारे मुल्क का भावी विकास और निर्माण वर्तमान पीढ़ी के साथ ही आने वाली नई पीढ़ी पर भी निर्भर है, तभी तो कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। लेकिन आज देश-समाज का नैतिक पतन भविष्य की पीढ़ी के लिए काफी विध्वंसक है। देश में बाल अपराध के आंकड़े दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं। लोग गरीब बच्चों की मजबूरी का फायदा उठाते हुए उनसे गैर कानूनी कार्य करा रहे हैं। बच्चों के अपहरण की घटनाएं लगातार बढ़ रही है। वे पशु-पक्षियों की तरह बेचे जा रहे हैं। निश्चित ही इसके पीछे परिवार, अवांछित पड़ोस, समाज, स्कूलों का अविवेकपूर्ण वातावरण, टेलीविजन, सिनेमा, असुरक्षा की भावना, भय, अकेलापन, भावनात्मक द्वन्द्व, अपर्याप्त निवास, निम्न जीवनस्तर, पारिवारिक अलगाव, पढ़ाई का बोझ, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, आधुनिक संस्कृति, मनोवैज्ञानिक एवं पारिवारिक कारक निहित हैं। देखा जाए तो आज के अभिभावक भी भौतिकता एवं महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ में व्यस्त हैं और वे बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पा रहे। पिता को व्यवसाय व नौकरी तो मां को नियमित कार्यों व अपने सगे-सम्बन्धियों से फुर्सत नहीं है। कहने को देश में बाल अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए किशोर न्याय अधिनियम 1986 जैसे और भी नियम-कायदे चलन में हैं पर इन नियमों का असर तब तक नहीं होगा जब तक कि देश से गरीबी-भुखमरी दूर नहीं हो जाती। दरअसल पेट की आग इंसान से सब कुछ गलत कराती है। देश के कोने-कोने में हम बच्चों को भीख मांगते देख सकते हैं। भिक्षावृत्ति जहां एक सामाजिक बुराई है वहीं उदरपूर्ति का सबसे आसान जरिया भी है। इस लाइलाज बीमारी के चलते ही भारत को भिखारियों का देश कहा जाने लगा है? यह विडम्बना ही है कि भारत का एक बड़ा वर्ग भिखमंगों का है। वैसे तो भारत में भीख मांगना वैदिक काल से ही चला आ रहा है लेकिन उस समय इसका अर्थ भिक्षा व दान होता था। आज भीख मांगना धंधा बन गया है। देश में बाल श्रम व बाल अपराध की स्थिति पर सरकारी आंकड़े कुछ भी कहते हों पर जानकर ताज्जुब होगा कि निजी क्षेत्रों में कोई 12 करोड़ बच्चे पेट की खातिर जुल्म-ज्यादती सहन कर रहे हैं। इनमें 25 फीसदी बच्चे दुराचारियों के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं। वैसे तो बच्चों की उचित परवरिश को देशभर में बहुत से नियम-कायदे हैं पर राजनीतिक व सामाजिक इच्छाशक्ति में अभाव के चलते सरकारी तंत्र इन्हें लागू करने में अपने आपको अक्षम पाता है। बेहतर होगा कानून बिना दबाव अपने काम को अंजाम दे और बच्चों के पुनर्वास का भी ख्याल रखे क्योंकि खोया बचपन कभी वापस नहीं लौटता। बीते महीने यूनीसेफ की रिपोर्ट में खुलासा किया गया कि भारत में 22 फीसदी लड़कियां कम उम्र में ही मां बन जाती हैं और 43 फीसदी पांच साल से कम उम्र के बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। शहरों में रहने वालों की संख्या तकरीबन 37 करोड़ है इनमें अधिकतर संख्या गांव से पलायन करने वालों की है। इन शहरों में हर तीन में से एक व्यक्ति नाले अथवा रेलवे लाइन के किनारे रहता है। देश के बड़े शहरों में कुल मिलाकर करीब पचास हजार ऐसी बस्तियां हैं जहां बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हंै। दुनिया भर में कम उम्र के बच्चों की मौतों में 20 प्रतिशत भारत में होती हैं और इनमें सबसे अधिक अल्पसंख्यक तथा दलित समुदाय प्रभावित हैं।  सरकार ने जिस तरह से ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों के लिए योजनाएं चला रखी हैं वैसी ही योजनाएं शहरों में रहने वाले गरीब बच्चों के लिए भी शुरू की जानी चाहिए। हिन्दुस्तान सदियों से एक ऐसा देश रहा है जो अपनी सांस्कृतिक विरासत और उन्नत सामाजिक चेतना के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। यहां महिलाओं और बच्चों को भगवान का दर्जा दिया गया है पर आज स्थिति भयावह है। यहां कथनी और करनी में एक बड़ा अंतर है। हम नारी को देवी के रूप में सम्मान की बात तो करते हैं परंतु उसे दर्जा नहीं देना चाहते हैं। हम बच्चों को भगवान का रूप तो मानते हैं परंतु उसका ख्याल नहीं रखना चाहते। देश में बच्चों के अपहरण और उनके लापता होने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। वर्ष 2008 से 2010 के दौरान देश में 28 हजार से अधिक बच्चों का अपहरण हुआ जबकि 1.84 लाख बच्चे इस अवधि के दौरान लापता हुए। बच्चों के अपहरण के मामले में उत्तरप्रदेश देश भर में वर्ष 2011 में अव्वल रहा। वर्ष 2008 में 7,862 बच्चों का अपहरण हुआ, तो 2009 में 9,436 और 2010 में ऐसे 11,297 मामले दर्ज किए गए। इसी अवधि में कुल 1,84,605 बच्चे लापता हुए। बच्चों के अपहरण के पीछे कोई एक कारण नहीं है। कुछ बच्चे जहां रंजिशन व पैसे के कारण अपहृत किये जा रहे हैं वहीं गरीब बच्चों का अपहरण अनैतिक कार्यों के लिए किया जा रहा है। यह बच्चे विदेशियों तक बेचे जा रहे हैं।
भ्रूण हत्या जहां स्वेच्छा की परिधि में आता है वहीं बाल अपराध सामाजिक अनैतिकता का घृणित खेल है। बाल अपराधों में उत्तरप्रदेश की स्थिति काफी खराब है। आगरा को ही लें तो यहां चार मई, 2011 से चार मई, 2012 तक 29 किशोरियों से दुराचार होना हमारे समाज का सबसे विद्रूप चेहरा है। एक साल में ही यहां बच्चों के अपहरण की दर्जनों वारदातें हुई हैं।


Monday, 21 May 2012

उत्तर प्रदेश की हर ग्राम पंचायत में होगा खेल मैदान


अब उत्तर प्रदेश की खेल प्रतिभाओं को अपना खेल निखारने के लिए शहर की तरफ नहीं भागना पड़ेगा। अब उनकी ग्राम पंचायत में न केवल खेल मैदान होंगे बल्कि केन्द्र सरकार खेल सामग्री भी मुहैया कराएगी। केन्द्र सरकार की महत्वाकांक्षी पंचायत युवा क्रीड़ा और खेल अभियान योजना के तहत प्रदेश की सभी ग्राम पंचायतों को चिह्नित किया जा चुका है। सब कुछ ठीकठाक रहा तो वर्ष 2017 तक देश की हर ग्राम पंचायत के पास स्वयं का खेल मैदान व सामान होगा। पायका योजना का लाभ आगरा जिले की 640 ग्राम पंचायतों को मिलेगा जिसमें 10 करोेड़, 57 लाख 20 हजार रुपये की लागत आएगी। कुल लागत का 75 फीसदी पैसा केन्द्र और 25 फीसदी पैसा राज्य सरकार वहन करेगी।
केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा वित्तीय वर्ष 2008-09 से संयुक्त रूप से पंचायत युवा क्रीड़ा और खेल अभियान (पायका) योजना संचालित की जा रही है। इस योजना का उद्देश्य पंचायत स्तर पर आधारभूत खेल अवस्थापना एवं खेल उपकरण आदि उपलब्ध कराकर आमजन की सहभागिता से ग्रामीण क्षेत्रों में खेलकूद को प्रोत्साहित करना तथा प्रतिभाशाली ग्रामीण खिलाड़ियों को जिला, ब्लॉक स्तर की वार्षिक खेल प्रतियोगिताओं के माध्यम से आगे बढ़ने का अवसर सुलभ कराना है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के वित्तीय वर्ष 2008-09 से 2011-12 तक जनपद की समस्त ग्राम पंचायतों एवं क्षेत्र पंचायतों के 10 प्रतिशत की दर से तथा बारहवीं पंचवर्षीय योजना के वित्तीय वर्ष 2012-13 से 2016-17 तक 12 प्रतिशत की दर से ग्राम पंचायतों तथा क्षेत्र पंचायत स्तर पर खेल मैदानों का विकास कर खेल गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाना है।
इस योजना से उत्तर प्रदेश के सभी जिले लाभान्वित होंगे। आगरा जनपद में भी यह योजना अपना काम शुरू कर चुकी है। इस योजना से आगरा जनपद के विकास खण्ड खन्दौली की 56 ग्राम पंचायतें व 42 पायका सेण्टर, शमशाबाद की 55  ग्राम पंचायतें व 44 पायका सेण्टर, फतेहाबाद की 64 ग्राम पंचायतें व 39 पायका सेण्टर, जगनेर की 26 ग्राम पंचायतें व 19 पायका सेण्टर, सैंया की 39 ग्राम पंचायतें व 28 पायका सेण्टर, खेरागढ़ की 35 ग्राम पंचायतें व 24 पायका सेण्टर, एत्मादपुर की 36 ग्राम पंचायतें व 26 पायका सेण्टर, अछनेरा की 51 ग्राम पंचायतें व 37 पायका सेण्टर, बाह की 45 ग्राम पंचायतें व 28 पायका सेण्टर, जैतपुर कलां की 45 ग्राम पंचायतें व 28 पायका सेण्टर, बिचपुरी की 24 ग्राम पंचायतें व 21 पायका सेण्टर, फतेहपुर सीकरी की 51 ग्राम पंचायतें व 32 पायका सेण्टर, अकोला की 32 ग्राम पंचायतें व 25 पायका सेण्टर तथा पिनाहट की 35 ग्राम पंचायतें व 23 पायका सेण्टर लाभान्वित होंगे। अब सवाल यह उठता है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना समाप्ति की ओर है, ऐसे में तय समय पर कार्य कैसे पूरा हो सकेगा?  नियम के मुताबिक अब तक 192 ग्राम पंचायतों में काम पूरा हो जाना था, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है।